Wednesday, 21 September 2011

सिसकते आब में किस की सदा है......... डॉ. बशीर बद्र

सिसकते आब में किस की सदा है
कोई दरिया की तह में रो रहा है

सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा
ख़ुदा चरो तरफ़ बिखरा हुआ है

समेटो और सीने में छुपा लो
ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है

पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती है
बदन अपना सुनेहरा हो चला है

हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है
समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है

हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता
हवा के होंठ अक्सर चूमता है

मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है

-डॉ, बशीर बद्र

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