अजीब अन्दाज़ की ये ज़िन्दगी महसूस होती है
भली मालूम होती है, बुरी महसूस होती है
ये साँसें भी मुसलसल खुदकुशी का नाम हैं शायद
मैं जितना जीता हूँ, उतनी नफ़ी मह्सूस होती है
जो हाज़िर है कभी उस पर तवज्जो ही नहीं जाती
नहीं जो सामने उसकी कमी महसूस होती है
ज़रा सा गम भी अक्सर साथ देता है मेरा सदियों
खुशी कितनी भी हो क्यों आरिज़ी महसूस होती है
अजीब इन्सां है अब भी ज़िन्दगी के गीत गाता है
मुझे हर साँस उसकी आखिरी मह्सूस होती है
फ़िज़ाओं तक ही गर महदूद रह्ती तो भी जाता
खलाओं में अब आलूदगी महसूस होती है
कभी आया था मेरी ज़िन्दगी में ज़लज़ला ’आज़र’
मुझे अब तक ज़मीं हिलती हुई महसूस होती है
-------डॉ. फ़रियाद "आज़र"
No comments:
Post a Comment