Saturday, 1 October 2011

गुच्छा लाल फूलों का........................ललित कुमार

ललित कुमार द्वारा लिखित : 30 सितम्बर 2011
मुझे याद नहीं आता कि पिछली बार मैंने ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) कब लिखने की कोशिश की थी। शायद काफ़ी अर्सा हो गया… ख़ैर आज जो लिखा वो ये है…

 
हाले-शहर होता वही जो होता हाल फूलों का
कभी ग़ौर से देखा करो, है कमाल फूलों का

दोनों रखे हैं सामने ज़रा सोच-समझ के बोल
सुर्ख़ खंजर अच्छा कि गुच्छा लाल फूलों का

बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का

याँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थे
बड़ा बेरंग-सा गुज़रा है अबके साल फूलों का

दो गुल ही काफ़ी थे मगर लालच की हद कहाँ
तोड़ क्यूं उसने लिया मुकम्मल डाल फूलों का

-------ललित कुमार 

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