तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Monday, 20 August 2012

पिछले पन्नों में‍ लिखी जाने वाली कविता......तिथि दानी

अक्सर पिछले पन्नों में ही
लिखी जाती है कोई कविता
फिर ढूंढती है अपने लिए
एक अदद जगह
उपहारस्वरूप दी गई
किसी डायरी में
फिर किसी की जुबां में
फिर किसी नामचीन पत्रिका में

फिर भी न जाने क्यों
भटकती फिरती है ये मुसाफिर
खुद को पाती है एकदम प्यासा
अचानक इस रेगिस्तान में
उठते बवंडर संग उड़ चलती हैं ये
बवंडर थककर खत्म कर देता है
अपना सफर
लेकिन ये उड़ती जाती हैं
और फैला देती है
अपना एक-एक कतरा
उस अनंत में जो रहस्यमयी है।
लेकिन एक खास बात
इसके बारे में,
आगोश से इसके चीजें
गायब नहीं होतीं
और न ही होती है
इनकी इससे अलग पहचान

लेकिन यह कविता
शायद! अपने जीवनकाल में
सबसे ज्यादा खुश होती है
यहां तक पहुंचकर
क्योंकि
ब्रह्माण्ड के नाम से जानते हैं
हम सब इसे।





-तिथि दानी

17 comments:

  1. बहुत सुन्दर...
    यशोदा की खोजी नज़रों की दाद देती हूँ....

    अनु

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  2. शुभ प्रभात दीदी
    शुक्रिया

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  3. बहुत ही बढ़िया



    सादर

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    1. भाई
      शुभ प्रभात
      शुक्रिया
      सादर

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  4. Replies
    1. शुक्रिया दीदी
      प्रणाम

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  5. bahut sundar...alag laga padh kar ......

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    1. आभार रेवा बहन
      आप आई... मैं अभिभूत हुई
      सादर

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  6. बहुत प्रभावी रचना ... स्तब्ध करते शब्द ...

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    1. धन्यवाद
      वास्तविक प्रतिक्रिया
      आभार

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  7. रचना आकार लेकर आकाश में निकल जाती है. बहुत सुंदर वर्णन.

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  8. आभार
    भारत भूषण भाई

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  9. di, kamal ki post hoti hai aapki...

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    1. तुम भी कम नहीं हो भाई सुरेश

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  10. bahut hi achchhi kavita... Padhkar laga kuchh alag bata hai.

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    1. शुक्रिया उपेन्द्र भाई

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