तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Saturday, 19 June 2021

कोई कवि नहीं था,रावण के राज्य में

कोई कवि नहीं था 
रावण के राज्य में 
भाषा थी सिर्फ़ लंकाई
जो रावण और 
उसके क़रीबी दैत्य बोलते थे

राम !
तुम्हारे नहीं रहने के बाद भी
तुम हो सर्वत्र,
तो इसलिए भी
तुम साहित्य में हो
केवल भाषा में नहीं

वो भी
इसलिए ही कि तुम्हारे साथ कवि थे !
 भाषा का अमर रस
कवि के पास ही होता है,
केवल दरबारी भाषा बोलने वाली
जनता के पास नहीं 

राम !
तुम और तुम्हारे राज्य की
भाषा भी बची हुई है
वह
 तो केवल साहित्य है
जहाँ तुम हो,
वहीं 
तुम्हारी भाषा भी है!

साहित्य ही पहचानता है कि
राम क्या है और
रावण क्या नहीं है

राम!
मरे हुए को समझाने कहूँगा नहीं,..क्योंकि 
मरा हुआ आदमी समझता भी कहाँ है,
उसकी तो भाषा भी नहीं होती !

एक कहावत है
 ''कौन पढ़ाये मूर्खों को कि
भाषा से साहित्य बनता है
''
किन्तु ''साहित्य से ही 
भाषा समृद्ध'' होती है,
और उन्हें तो कतई नहीं कि 
जो भाषा, साहित्य, संस्कृति और 
विचार के प्रति कहीं से भी गंभीर न हों 
-मन की उपज



Wednesday, 16 December 2020

रसहीन उत्सव

बीत गई
फीकी दीपावली
उत्साहविहीन
सुविधा विहीन
यंत्रवत जीवन जिया 
एक मशीन की तरह

सुबह से शाम तक
रात में भी सोने के पहले
एक चिंतन कि
कल की कल-कल
मन में असंतोष
खुशियाँ सारी समाप्त,

मास्क पहनने
और हाथ धोने में
बची खुची कसर
चढ़ गई बनकर भेंट
इस कहर भरी
विदेशी विषाणुओं रचित
महामारी कोरोना की भेट

घर पर रहकर मानव
महज निसहाय 'औ'
किस्से -कहानी तक
रह गया सीमित
यह महोत्सव दीपावली का
रस्म अदाई हो गई है..
-यशोदा
तस्वीर क्या बोले समूह मे स्वरचित






Sunday, 25 October 2020

नारी की आकांक्षा


एक स्त्री के लिए
प्रेम से बढ़कर भी
कुछ हो सकता है,
तो वो है सम्मान
या रिस्पेक्ट..।

क्षणिक हो सकता है
प्रेम ..पर
सम्मान नहीं होता
क्षणिक..वो क्यों
दिखावटी हो सकता है
प्रेम....पर
सम्मान नहीं

एक दिलचस्प बात
कि ईश्वर ने स्त्री को
ऐसी शक्ति दी है
जिससे वह
पढ़ सकती है
किसी भी पुरुष के भावों को
और पुरुष द्वारा 
दिया गया
सम्मान भाव को
स्थापित कर लेती है

अपने मन में वह स्त्री
शायद इसी लिए
स्त्री से दिखावा करना
संभव नहीं..।

-मन की उपज
टिप्पणी..
नारी की अभिलाषा और कार्य क्षमता का विश्लेषण..
रचना मन में स्वतः विस्फोटित हुई

Sunday, 10 May 2020

वक़्त की हर गाँठ पर ....मन की उपज

वक़्त की
हर गाँठ पर
हँसते-मुस्कुराते जीने
के लिए
कुछ संज़ीदगी भी 
जरुरी है।

ये जो दौर है
महामारी का
वायरस के डंक से
च़िहुँककर 
दूर छिटकना
लॉकडाउन के पिंजरें में
फड़फड़ाना
मजबूरी है।

संज़ीदगी 
मात्र सोच में क्यों
जीने के तौर-तरीकों में
"मेरी मर्जी"
ऐसी क्यूँ
मग़रूरी है।

मौत को
तय करने दीजिए
 फ़ासला
ज़िंदगी
जीने वालों के
नज़रिए से
पूरी या अधूरी है।
©यशोदा

Saturday, 7 March 2020

जिजीविषा ....मन की उपज


स्त्रियों का हास्य बोध 
और जिजीविषा
गिन नहीं पाएँगे आप
कितनों के निशाने पर रहती है स्त्री
हारी नहीं फिर भी
रहती है हरदम जूझती
कभी हंसकर..तो
कभी खामोशी से
या फिर करके विद्रोह..
कारण है एक ही
उसने हर तरह की
चुनौतियां और मुश्किलें
हंसकर पार की है
वजह है..
प्रकृति ने उसे 
असंख्य गुण
व अद्भुत सहनशीलता
के गुणों से 
नवाजा है
सामाजिक
निशानदेही 
स्त्रियों के बिना
अकल्पनीय है
धैर्य का पल्लवन है वो
स्नेह और प्यार का
अतुल कोश है उसके पास
कितना भी लिखूँ 
स्त्रियों को
क़लम के दायरे से
उफ़नकर
बह ही जाती हैं।
-मन की उपज

Friday, 13 September 2019

हिन्दी में हैं हम..


हिस्सा है हिन्दी
हमारे अस्तित्व का ...
ये वो पुल है जो...
ले जाती है सुखों तक
पहुंचाती है हमें
संतुष्टि के शिखरो पर
जोड़ती है..हमें
हमारी जड़ों से
बताती है पता..
ज्ञान का..... जिसे
संजोया गया है
करोड़ों लोगों द्वारा
वर्षों से...और
ले जाती है हमें..
एक सार्थक
जीवन की ओर
कुल मिलाकर
आप भी सहमत होंगे
हिन्दी में हैं हम
और हिन्दी हममें है
मन की उपज

Monday, 24 June 2019

बड़प्पन

बड़प्पन
मायके आयी रमा, माँ को हैरानी से देख रही थी। माँ बड़े ध्यान से 
आज के अखबार के मुख पृष्ठ के पास दिन का खाना सजा रही थी। दाल, रोटी, सब्जी और रायता। फिर झट से फोटो खींच व्हाट्सप्प 
करने लगीं।
"माँ ये खाना खाने से पहले फोटो लेने का क्या शौक हो गया 
है आपको ?"

"अरे वो जतिन बेचारा, इतनी दूर रह हॉस्टल का खाना ही खा रहा है। कह रहा था की आप रोज लंच और डिनर के वक्त अपने खाने की तस्वीर भेज दिया करो उसे देख कर हॉस्टल का खाना खाने में आसानी रहती है। "

"क्या माँ लाड-प्यार में बिगाड़ रखा है तुमने उसे। वो कभी बड़ा भी होगा या बस ऐसी फालतू की जिद करने वाला बच्चा ही बना रहेगा !" रमा ने शिकायत की।

रमा ने खाना खाते ही झट से जतिन को फोन लगाया।

"जतिन माँ की ये क्या ड्यूटी लगा रखी है? इतनी दूर से भी माँ को तकलीफ दिए बिना तेरा दिन पूरा नहीं होता क्या ?"
"अरे नहीं दीदी ऐसा क्यों कह रही हो। मैं क्यों करूंगा माँ को परेशान?"
"तो प्यारे भाई ये लंच और डिनर की रोज फोटो क्यों मंगवाते हो ?"
बहन की शिकायत सुन जतिन हंस पड़ा। फिर कुछ गंभीर स्वर में 
बोल पड़ा :
"दीदी पापा की मौत , तुम्हारी शादी और मेरे हॉस्टल जाने के बाद अब माँ अकेली ही तो रह गयी हैं। पिछली बार छुट्टियों में घर आया तो कामवाली आंटी ने बताया की वो किसी- किसी दिन कुछ भी नहीं बनाती। चाय के साथ ब्रेड खा लेती हैं या बस खिचड़ी। पूरे दिन अकेले उदास बैठी रहती हैं। तब उन्हें रोज ढंग का खाना खिलवाने का यही तरीका सूझा। मुझे फोटो भेजने के चक्कर में दो टाइम अच्छा खाना बनाती हैं। फिर खा भी लेती हैं और इस व्यस्तता के चलते ज्यादा उदास भी नहीं होती। "
जवाब सुन रमा की ऑंखें छलक आयी। रूंधे गले से बस इतना बोल पायी .......
भाई तू सच में बड़ा हो गया है.....

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ये रचना अपराजिता के जग्गी ने लिखी है
अभी ये सूचना प्राप्त हुई है
सादर आभार