Sunday, 20 November 2011

एक फेसबुकिया कविता..................संजीव तिवारी

 कविताएं भी लिखते हो मित्र..
मुझे हौले से उसने पूछा..
कविताएं ही लिखता हूं मित्र..
मैने सहजता से कहा.
भाव प्रवाह को..
गद्य़ की शक्ल में न लिखते हुए..
एक के नीचे एक लिखते हुए..
इतनी लिखी है कि..
दस बीस संग्रह आ जाए.
डाय़री के पन्नों में..
कुढ़ते शब्दों नें..
हजारों बार आतुर होकर..
फड़फड़ाते हुए कहा है..
अब तो पक्के रंगों में..
सतरंगे कलेवर में..
मुझे ले आवो बाहर..
पर मै हूं कि सुनता नही..
शब्दों की
शाय़द इसलिए कि..
बरसों पहले मैंनें..
विनोद कुमार शुक्ल से..
एक अदृश्य़ अनुबंध कर लिय़ा था..
कि आप वही लिखोगा..
जो भाव मेरे मानस में होंगा..
और उससे भी पहले मुक्तिबोध को भी मैंने..
मना लिय़ा था
मेरी कविताओं को कलमबध्द करने.
इन दोनों नें मेरी कविताओं को..
नई उंचाइय़ां दी..
मेरी डाय़री में दफ्न शब्दों को..
उन तक पहुचाय़ा..
जिनके लिय़े वो लिखी गई थी..
उनकी हर कविता मेरी है..
क्य़ा आप भी मानते हैं की
उनकी सारी रचनाएं आपकी है. 
-संजीव तिवारी

2 comments:

  1. यशोदा जी,
    संजीव जी की रचना पसंद आई ,..बधाई
    मेरे नए पोस्ट में स्वागत है ...

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