Sunday, 20 November 2011

आग, कम्बल, छत नहीं, सोये कहाँ ग़रीब..........ललित कुमार

थामोगी या छोड़ोगी मेरा हाथ ज़िन्दगी
कब बीतेगी कहो ये काली रात जिन्दगी

मुझसे वादा किया है तूने वो भूलना नही
जिस बाबत हुई थी तेरी-मेरी बात ज़िन्दगी

जन्मों का है जब साथ तो बेकरारी क्यों
अभी तो बाकी हैं पड़ने फेरे सात ज़िन्दगी

आग, कम्बल, छत नहीं, सोये कहाँ ग़रीब
ठंड में कांप रहा है तन का पात ज़िन्दगी

माना के तूफ़ां तेज़ है पर लड़ने तो दे ज़रा
होगी ग़र तो मानेंगे शह-ओ-मात ज़िन्दगी 
-ललित कुमार (जून 06....2011)

5 comments:

  1. वाह ………आज तो ज़िन्दगी से गुफ़्तगू करा दी बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुति।

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  2. वाह ... बहुत खूब ।

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  3. थामोगी या छोड़ोगी मेरा हाथ ज़िन्दगी
    कब बीतेगी कहो ये काली रात जिन्दगी
    बहुत खूब सुन्दर गजल

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