अंग्रेज़ी-पुच्छलतारे नुमा व्यक्ति जब बातचीत में हिन्दी के शब्दों के अंत में जानबूझ कर व्यर्थ में ही 'आ' की पूंछ लगा कर उसका सौंदर्य नष्ट कर देते हैं, जब जी टीवी द्वारा इंग्लैंड में आयोजित एक सजीव कार्यक्रम में जहां लगभग 100 हिन्दी-भाषी वाद-विवाद में भाग ले रहे हों और एक हिन्दू भारतीय प्रौढ़ सज्जन जब गर्व से सिर उठा कर 'हवन कुंड' को 'हवना कुंडा' कह रहा हो तो हिन्दी भाषा कराहने लगती है, उसका गला घुटने लगता है।
यह ठीक है कि अधिकांश कार्यवाही अंग्रेजी में ही चल रही थी किंतु अंग्रेजी में बोलने का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें हिन्दी शब्दों को कुरूप बना देने का अधिकार मिल गया हो। वे यह भी नहीं सोचते कि इस प्रकार विकृत उच्चारण से शब्दों के अर्थ और भाव तक बदल जाते हैं। 'कुंड' और 'कुंडा' दोनों शब्द भिन्न संज्ञा के द्योतक हैं।
श्रीमान, सुना है यहां एक संस्था या केंद्र है जहां योग की शिक्षा दी जाती है, आप बताने का कष्ट करेंगे कि कहां है?' 'आपका मतलब है योगा-सेंटर?' महाशय ने तपाक से अंग्रेजी-कूप में से मंडूक की तरह उचक कर 'योग' शब्द का अंग्रेजीकरण कर 'योगा' बना डाला। यह बात थी दिल्ली के करौल बाग क्षेत्र की।
यह मैं मानता हूं कि रोमन लिपि में अहिन्दी भाषियों के हिन्दी शब्दों के उच्चारण में त्रुटियां आना स्वाभाविक है, किन्तु हिन्दी-भाषी लोगों का हमारी राष्ट्र-भाषा के प्रति कर्तव्य है कि जानबूझ कर भाषा का मुख मलिन ना हो। यदि हम उन शब्दों को अंग्रेज लोगों के सामने उन्हीं का अनुसरण ना करके शब्दों का शुद्ध उच्चारण करें तो वे लोग स्वतः ही ठीक उच्चारण करके आपका धन्यवाद भी करेंगे। यह मेरा अपना निजी अनुभव है। कुछ निजी अनुभव यहां देने असंगत नहीं होंगे और आप स्वयं निर्णय कीजिए कि हम हिन्दी शब्दों के अंग्रेजीकरण उच्चारण में क्यों गर्वित होते हैं।
मैं इंग्लैंड के एक छोटे से नगर में एक स्कूल में अध्यापन-कार्य करता था। उसी स्कूल में सांयकाल के समय बड़ी आयु के लोगों के लिए भी कुछ विषयों की सुविधा थी। अन्य विषयों के साथ योगाभ्यास की कक्षा भी चलती थीं जो हम भारतीयों के लिये बड़े गर्व की बात थी। यद्यपि मेरा उस विभाग से संबंध नहीं था पर उसके प्रिंसिपल मुझे अच्छी तरह जानते थे।
योग की कक्षाएं एक भारतीय शिक्षक लेते थे जिन्होंने हिन्दी-भाषी उत्तर प्रदेश में ही शिक्षा प्राप्त की थी, हठयोग का बहुत अच्छा ज्ञान था। मुझे भी हठयोग में रुचि थी, इसीलिए उनसे अच्छी जान-पहचान हो गई थी। एक बार उन्हें किसी कारण एक सप्ताह के लिए कहीं जाना पड़ा तो प्रिंसिपल ने पूछा कि मैं यदि एक सप्ताह के लिए योग की कक्षा ले सकूं। पांच दिन के लिए दो घंटे प्रतिदिन की बात थी। मैंने स्वीकार कर कार्य आरम्भ कर दिया। 20 मिली जुली आयु के अंग्रेज पुरुष और स्त्रियां थीं।
परिचय देने के पश्चात एक प्रौढ़ महिला ने पूछा, ' आज आप कौन सा 'असाना' सिखायेंगे?' मैं मुस्कुराया और बताया कि इसका सही उच्चारण असाना नहीं, 'आसन' कहें तो अच्छा लगेगा।' उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, कहने लगीं, 'मिस्टर आ. ने तो ऐसा कभी भी नहीं कहा। वे तो सदैव 'असाना' ही कहा करते थे।'
मैंने यह कहकर बात समाप्त कर दी कि हो सकता है मि. आ. ने आप लोगों की सुगमता के लिए ऐसा कह दिया होगा। महिला ने शब्द को सुधारने के लिए कई बार धन्यवाद किया। मूल कार्य के साथ जितने भी आसन,मुद्राएं और क्रियाएं उन्होंने श्री आ. के साथ सीखी थीं, उनके सही उच्चारण भी सुधारता गया। प्रसन्नता की बात यह थी कि वे लोग हिन्दी के उच्चारण बिना किसी कठिनाई के बोल सकते थे। 'त' और 'द' बोलने में उन्हें आपत्ति अवश्य थी जिसको पचाने में कोई आपत्ति नहीं थी। जब श्री आ. वापस आकर अपने विद्यार्थियों से मिले तो अगले दिन मुझे मिलने आए और हंसते हुए कहने लगे,'यह कार्य तो मुझे आरम्भ में ही कर देना चाहिए था। इसके लिए धन्यवाद!'
श्री अर्जुन वर्मा हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता हैं। गीता तो ऐसा लगता है जैसे सारे 18 अध्याय कण्ठस्थ हों। लंदन की एक हिन्दू-संस्था के एक विशेष कार्यक्रम के अवसर पर 'श्रीमद्भगवद्गीता' पर भाषण दे रहे थे। भारतीय, अंग्रेज और यहां तक कि ईरान के एक मुस्लिम दंपत्ति भी श्रोताओं में उपस्थित थे। स्वाभाविक है, अंग्रेज़ी भाषा में ही बोलना उपयुक्त था।
'माई नेम इज़ अर्जुन वर्मा.....'. गीता के विषयों की चर्चा करते हुए सारे पात्र अर्जुना, भीमा, नकुला, कृश्ना, दुर्योधना, भीष्मा, सहदेवा आदि बन गए। विडम्बना यह है कि वे स्वयं अर्जुन ही रहे और गीता के अर्जुन 'अर्जुना' बन गए। बाद में जब भोजन के समय अकेले में मैंने इस बात पर संक्षिप्त रूप से उनका ध्यान आकर्षित किया तो कहने लगे 'ये लोग गीता अंग्रेज़ी में पढ़ते हैं तो उनके साथ ऐसा ही बोलना पड़ता है। 'मैंने कहा,'वर्मा जी आप तो संस्कृत और हिन्दी में ही पढ़ते हैं।' वर्मा जी ने हंसते हुए यह कहकर बात समाप्त कर दी,' मैं आपकी बात पूर्णतयः समझ रहा हूं, मैं आपकी बात को ध्यान में रखूंगा।'
अपने एक मित्र का यह उदाहरण अवश्य देना चाहूंगा। बात, फिर वही लंदन की है। आप जानते ही हैं कि 'हरे कृष्ण' मंदिर विश्व के कोने कोने में मिलेंगे जिनका सारा कार्य-भार विभिन्न देशों के कृष्ण-भक्तों ने सम्भाला हुआ है। गौर वर्ण के लोग भी अपनी पूरी सामर्थ्यानुसार अपना योग दे रहे हैं। मेरे मित्र (नाम आगे चलकर पता लग जाएगा) इस मंदिर में प्रवचन सुनकर आए थे। मैंने पूछा, ' भई आज किस विषय पर चर्चा हो रही थी। हमें भी इस ज्ञान-गंगा में यहीं पर गोता लगवा दो।' कहने लगे,'आज सूटा के विषय में ,...' मैंने बीच में ही रोक कर पूछा,'भई, यह सूटा कौन है?' कहने लगे,'अरे वही, तुम तो ऐसे पूछ रहे हो जैसे जानते ही नहीं।
दिल्ली में मेरी माता जी जब हर माह श्री सत्यनारायण की कथा करवातीं थी, तुम हमेशा आकर सुनते थे। कथा के पहले ही अध्याय में सूटा ही तो...' मैंने फिर रोक कर उनकी बात टोक दी, 'अच्छा, तुम श्री सूत जी की बात कर रहे हो!' फिर अपनी बात सम्भालते हुए कहने लगे, 'यार, ये अंग्रेज़ लोग उन्हें सूटा ही कहते हैं।' मैंने फिर कहा,' देखो, तुम्हारा नाम 'अरुण' है, यदि कोई तुम्हारे नाम में 'आ' लगा कर 'अरुणा' कहे तो यह पसंद नहीं करोगे कि कोई किसी अन्य व्यक्ति के सामने तुम्हारे नाम को इस प्रकार बिगाड़ा जाए, तुम्हें 'नर' से 'नारी' बना दे। तुम उसी समय अपने नाम का सही उच्चारण करके सुधार देंगे।' यह तो मैं नहीं कह सकता कि अरुण को मेरी बात अच्छी लगी या बुरी किंतु वह चुप ही रहे।
मैंने कहीं भी रोमन अंग्रेजी लिपि में या अंग्रेजी लेख आदि में मुस्लिम पैगम्बर और पीर आदि के नामों के विकृत रूप नहीं देखे। कहीं भी हज़रत मुहम्मद की जगह 'हज़रता मुहम्मदा' या ‘रसूल’ की जगह ‘रसूला’नहीं देखा गया। मुस्लिम व्यक्ति की तो बात ही नहीं, किसी पाश्चात्य गौर वर्ण के व्यक्ति तक को ‘मुहम्मदा’ या ‘रसूला’ बोलते नहीं सुना।
कारण यह है कि कोई उनके पीर, पैगम्बर के नामों को विकृत करके मुंह खोलने वाले का मुंह टेढ़ा-मेढ़ा होने से पहले ही सीधा कर देते हैं। कभी मैं सोचता हूं, ऐसा तो नहीं कि एक दीर्घ काल तक गुलामी सह सह कर हमारे मस्तिष्क को हीनता के भाव ने यहां तक जकड़ लिया है कि कभी यदि वेदों पर चर्चा होती है तो 'मैक्समुलर' के ऋग्वेद के अनुवाद के उदाहरण देने में ही अपनी शान समझते हैं।
फिल्मी कलाकार, निर्माता, निर्देशक, नेता आदि यहां तक कि जब वे भारतीयों के लिए भी किसी वार्ता में दिखाई देते हैं, तो हिन्दी में बोलना अपनी शान में धब्बा समझते हैं। ऐसा लगता है कि उर्दू या हिन्दी तो उनके लिए किसी सुदूर अनभिज्ञ देश की भाषा है। यह देखा जा रहा है कि हर क्षेत्र में व्यक्ति जैसे जैसे अपने कार्य में सफलता प्राप्त करके ख्याति के शिखर के समीप आ जाता है, उसे अपनी मां को मां कहने में लज्जा आने लगती है।
भारत में बी.बी.सी. संवाददाता पद्म भूषण सम्मानित सर मार्क टली एक वरिष्ट पत्रकार हैं। उन्हें उर्दू और हिन्दी का अच्छा ज्ञान है। भारतीयों का हिन्दी भाषा के प्रति उदासीनता का व्यवहार देख कर उन्होंने कहा था,'... जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान! क्योंकि मुझे यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के 'भारतीय संस्कृति' जिंदा नहीं रह सकती। दिल्ली में जहां रहता हूं, उसके आसपास अंग्रेजी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकानें हैं, हिन्दी की एक भी नहीं।
हकीकत तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिन्दी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी।' लज्जा आती है कि एक विदेशी के मुख से ऐसी बात सुनकर भी ख्याति के शिखर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए सफलकारों के कान में जूं भी नहीं रेंगती। लोग कहते हैं कि हमारे नेता दूसरे देशों में भाषण देते हुए अंग्रेजी का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि वहां के लोग हिन्दी नहीं जानते।
मैं यही कहूंगा कि रूस के व्लाडिमिर पूतिन, फ्रांस के निकोलस सरकोजी, चीन के ह्यू जिन्ताओ और जर्मनी के होर्स्ट कोलर आदि कितने ही देशों के नेता जब भी दूसरे देशों में जाते हैं तो गर्व से भाषांतरकार को मध्य रख अपनी ही भाषा में बातचीत करते हैं। ऐसा नहीं है कि ये लोग अंग्रेजी से अनभिज्ञ हैं किंतु उनकी अपनी भाषा का भी अस्तित्व है।
---महावीर शर्मा