Thursday, 16 November 2017

रूठे हैं अपने ही.....



रूठे हैं अपने ही
तो हुआ क्या
साथ ही तो छूटा
तो हुआ क्या
एक तिनका ही टूटा 
नीड़ का ...बस
एक पुल ही टूटा 
उम्मीदों का
हुई राहें
बेगानी.
उलझकर काँटों से
बनी दर्द की 
नयी एक कहानी
कोई ज़ख़्म पुराना
हुआ ताजा
राह में ज़िन्दगी के
पर,तुम न हो ख़फ़ा
खुद से ज़रा भी
है न रास्ता...
देखो टटोलकर
बटोरकर
हौसला
देखो पलट कर
वो साया है
तुम्हारा ही..
तलाशो उसे
अपने भीतर
भूलकर अंधेरे को
जला लो फिर से
एक बाती 
वजूद की 
शिनाख्त के लिए
अंतर्मन के कोने में
-यशोदा
मन की उपज


9 comments:

  1. जी शानदार प्रस्तुति सही कहा आपने सजर से टूटते पत्ते सजर कंहा मायूस होता है
    कल फूटेंगीं फिर नई कोंपले यही कहता है।
    शुभ दिवस।

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  2. जी नमस्ते।
    आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 17 नवम्बर 2017 को साझा की गई है..................http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. पर,तुम न हो ख़फ़ा
    खुद से ज़रा भी
    है न रास्ता...
    देखो टटोलकर
    बटोरकर
    हौसला...

    Wahhhhhh.. अप्रतिम। टूटे स्वप्न से हताश मनस्थिति को ऊर्जा देती हुई, जागृत करती हुई, भरोसा देती हुई बहुत सुंदर कृति। सुंदर। सुंदरम। सुंदरतम

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  4. bahot khoob likhti hai aap...
    har shabd man se nikal kar bhavna me duba hua..

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  5. उलझकर काँटों से
    बनी दर्द की
    एक नयी कहानी....
    वाह!!!
    लाजवाब....

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  6. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/11/44.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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  7. अपनों के रूठने पर तकलीफ तो होती है पर ज़िंदगी कहाँ रुकती है...अपने ही मन को मनाकर कर्म में रत तो हो ही जाना पड़ता है! जीवन कर्मभूमि है पहले, फिर कुछ और...गहन गंभीर रचना के लिए बधाई यशोदा दीदी ।

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  8. आदरणीया दीदी मैंने आपकी रचना पढ़ी स्तब्ध हूँ और प्रसन्न भी और क्या कहूँ ! शब्द नहीं हैं
    अत्यंत सुन्दर भाव लिए हुए आपकी रचना। बहुत ख़ूब

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