हो रहे
पात पीत
सिकुड़ी सी
रात रीत
ठिठुरन भी
गई बीत
गा रहे सब
बसंत गीत
भरी है
मादकता
तन-मन-उपवन मे.
समय होता
यहीं व्यतीत
बौराया मन
बौरा गया तन
और बौराई
टेसू-पलाश
गीत-गात में
भर गई प्रीत
-मन की उपज
जाने के बाद
तुम्हारे
अक्सर
ख़्यालों में
तुमसे मिलकर
लौटने के बाद
हल्की-हल्की
आँच पर
खदबदाता रहता है
तुम्हारा एहसास
लिपट कर साँसों से
पिघलता रहता है
कतरा-कतरा।
बनाने लगती हूँ
कविता तुम्हारे लिए
अकेलेपन की.......
जलता रहता है
अलाव एक
बुझते शरारों के बीच
फिर उम्मीद जगती है
और एक मुलाकात की
फिर.....तुम्हारे लिए
तुमसे मिलूँ.....
एक और नई
कविता के लिए
-यशोदा
-मन की उपज
आनन्द
प्रेम का...
असम्भव है
शब्दों में
बता पाना
और ये भी कि
क्या है प्रेम का
कारण...
यह गूंगे का गुड़ है
देह, मन, आत्मा का
ऐसा आस्वाद है
जिसके विवेचन में
असमर्थ हो जाती
इंद्रियां भी...
अलसा जाती हैं....
आस्वाद प्रेम का
अनुभव तो करती हैं
पर उसी रूप में
नहीं कर पाती
व्यक्त
यही कारण है कि
आज भी प्रेम
अपरिभाषित है,
नव्य है....
काम्य है....
ऐसा कौन सा
जीव होगा...
जो अछूता है
जादू नहीं चला
अबोध हो या
सुबोध हो
अज्ञ, तज्ञ या विज्ञ
भी समझते हैं
आभा प्रेम की
स्पर्श प्रेम का
देह, मन और आत्मा को
छू लेता है....
पेड़-पौधे तक
इस स्पर्श को
समझते हैं....
सृष्टि का आधार
प्रेम ही तो है....और
ये सृष्टि भी...
उसी का सृजन है
कहने को तो
अक्षर ढाई ही हैं
पर है तो..अब तक
अपरिभाषित...
-यशोदा
मन की उपज