दिल का मेरे ये भी इक फ़ितूर है
मानना हरगिज़ नहीं तू दूर है
मींच कर के आँख फिर से देखिये
हो गया गर ख़्वाब चकनाचूर है
बात में उसकी सदा रहता है सच
जो नहीं मालिक महज मजदूर है
आलमे तन्हाइ का दोज़ख़ है क्या
पूछ उससे जो बहुत मशहूर है
धूल उसने झौंक दी है आखँ में
जिसको समझे थे के इनका नूर है
ग़म खुशी में फ़र्क ही करते नहीं
क्या अजब ये अश्क का दस्तूर है
साथ तेरे गर वो चल पाया नहीं
सोचना नीरज बहुत मजबूर है......
मानना हरगिज़ नहीं तू दूर है
मींच कर के आँख फिर से देखिये
हो गया गर ख़्वाब चकनाचूर है
बात में उसकी सदा रहता है सच
जो नहीं मालिक महज मजदूर है
आलमे तन्हाइ का दोज़ख़ है क्या
पूछ उससे जो बहुत मशहूर है
धूल उसने झौंक दी है आखँ में
जिसको समझे थे के इनका नूर है
ग़म खुशी में फ़र्क ही करते नहीं
क्या अजब ये अश्क का दस्तूर है
साथ तेरे गर वो चल पाया नहीं
सोचना नीरज बहुत मजबूर है......
------नीरज गोस्वामी
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