Tuesday, 29 May 2012

मौसम और मन .....यशवन्त माथुर

मेरे ब्लाग धरोहर की सौवीं पोस्ट.........
मौसम और मन...भाई यशवन्त माथुर
कभी धूप
कभी छाँव

कभी गर्मी

कभी ठंड

कभी बरसात

कभी बसंत

बदलता है मौसम

पल पल रंग।


मन भी तो ऐसा ही है

बिलकुल मौसम जैसा

पल पल बदलता हुआ

कभी अनुराग रखता है

प्रेम मे पिघलता है

और कभी

जलता है

द्वेष की गर्मी मे।


ठंड मे ठिठुरता है

किटकिटाता है

क्या हो रहा है-

सही या गलत

समझ नहीं पाता है

जम सा जाता है मन

पानी के ऊपर तैरती

बरफ की सिल्ली की तरह ।


मन!

जब बरसता है

बेहिसाब बरसता ही

चला जाता है

बे परवाह हो कर

अपनी सोच मे

अपने विचारों मे

खुद तो भीगता ही है

सबको भिगोता भी है

जैसे पहले से ही

निश्चय कर के निकला हो

बिना छाते के घर से बाहर ।


बसंत जैसा मन !

हर पल खुशनुमा सा

एक अलग ही एहसास लिये

कुछ कहता है

अपने मन की बातें करता है

मंद हवा मे झूमता है

इठलाता है

खेतों मे मुसकुराते

सरसों के फूलों मे

जैसे देख रहा हो

अपना अक्स।


मौसम और मन

कितनी समानता है

एकरूपता है

भूकंप के जैसी

सुनामियों के जैसी

ज्वालामुखियों के जैसी

और कभी

बिलकुल शांत

आराम की मुद्रा मे

लेटी हुई धरती के जैसी
। 
--यशवन्त माथुर
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तू हर मौसम को सहनेवाली एक नदी......डॉ.कुँअर बेचैन






पत्नी

तू मेरे घर में बहनेवाली एक नदी


मैं नाव

जिसे रहना हर दिन


बाहर के रेगिस्तानों में।


नन्हीं बेसुध लहरों को तू


अपने आँचल में पाल रही


उनको तट तक लाने को ही


तू अपना नीर उछाल रही


तू हर मौसम को सहनेवाली एक नदी


मैं एक देह


जो खड़ी रही आँधी, वर्षा, तूफ़ानों में।


इन गर्म दिनों के मौसम में


कितनी कृश कितनी क्षीण हुई।


उजली कपास-सा चेहरा भी


हो गया कि जैसे जली रुई


तू धूप-आग में रहनेवाली एक नदी


मैं काठ


सूखना है जिसको


इन धूल भरे दालानों में।


तेरी लहरों पर बहने को ही


मुझे बनाया कर्मिक ने


पर तेरे-मेरे बीच रेख-


खींची रोटी की, मालिक ने


तू चंद्र-बिंदु के गहनेवाली एक नदी


मैं सम्मोहन


जो टूट गया


बिखरा फिर नई थकानों में। 
 
--डॉ.कुँअर बेचैन
प्रस्तुतिकरणः अमोल पाराशर

सिर्फ़ तन्हाईयों ने बुलाया हमें......राकेश खण्डेलवाल


रेत पर नाम लिख लिख मिटाते सभी,
तुमने पत्थर पे लिख कर मिटाया हमें
शुक्रिया, मेहरबानी करम, देखिये
एक पल ही सही गुनगुनाया हमें

तुम शनासा थे दैरीना कल शाम को,
बेरुखी ओढ़ कर फिर भी हमसे मिले
हमको तुमसे शिकायत नहीं है कोई,
अपनी परछाईं ने भी भूलाया हमें

आये हम बज़्म में सोच कर सुन सकें
चंद ग़ज़लें तुम्हारी औ’ अशआर कुछ
हर कलामे सुखन बज़्म में जो पढ़ा
वो हमारा था तुमने सुनाया हमें

ध्यान अपना लगा कर थे बैठे हुए,
भूल से ही सही कोई आवाज़ दे
आई लेकर सदा न इधर को सबा,
सिर्फ़ तन्हाईयों ने बुलाया हमें

ढाई अक्षर का समझे नहीं फ़लसफ़ा,
ओढ़ कर जीस्त की हमने चादर पढ़ा
एक गुलपोश तड़पन मिली राह में
जिसने बढ़ कर गले से लगाया हमें

तुमने लहरा के सावन की अपनी घटा
भेजे पैगाम किसको, ये किसको पता
ख़्‍वाब में भी न आया हमारे कोई
तल्खियों ने थपक कर सुलाया हमें... 
-राकेश खण्डेलवाल

Sunday, 13 May 2012

ओ मेरी माँ वो तू ही है..........दीप्ति शर्मा

जब पहला आखर सीखा मैंने
लिखा बड़ी ही उत्सुकता से 

हाथ पकड़ लिखना सिखलाया
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

अँगुली पकड़ चलना सिखलाया

चाल चलन का भेद बताया
संस्कारों का दीप जलाया
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

जब मैं रोती तो तू भी रो जाती

साथ में मेरे हँसती और हँसाती
मुझे दुनिया का पाठ सिखाती
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

खुद भूखा रह मुझे खिलाया

रात भर जगकर मुझे सुलाया
हालातों से लड़ना तूने सिखाया
ओ मेरी माँ वो तू ही है ।

© दीप्ति शर्मा

Sunday, 6 May 2012

मरीचिका ......................अनन्या अंजू

वह दृष्टि
अब भी
मुझमे है......!
उसमे डूबी
लड़ रही हूं
मैं ,स्वयं  से !
क्या ..
भ्रम है वो मेरा
या फिर
है मरूभूमि में
जल  का आभास ....!!
छोड़ दूँ खोज
किसी डर से
या दौड लूँ ,उस
परछाई के पीछे .....!
जिज्ञासावश  देखा
फिर से उन आँखों में
जाने क्या सूझा ,
दौड पड़ी
उस जल जैसे आभास को
अंजुरी में भरने ...!!!
जानती थी
नहीं , ये कुछ ओर
है केवल
मन की मरीचिका ..!!
शायद ...
जीवन भी तो
है मात्र...
एक जीजिविषा

-अनन्या अंजू