कुछ मत कहना तुम
मैं जानती हूँ
मेरे जाने के बाद
वह जो तुम्हारी पलकों की कोर पर
रुका हुआ है
चमकीला मोती
टूटकर बिखर जाएगा
गालों पर
और तुम घंटों अपनी खिड़की से
दूर आकाश को निहारोगे
समेटना चाहोगे
पानी के पारदर्शी मोती को,
देर तक बसी रहेगी
तुम्हारी आँखों में
मेरी परेशान छवि
और फिर लिखोगे तुम कोई कविता
फाड़कर फेंक देने के लिए...
जब फेंकोगे उस
उस लिखी-अनलिखी
कविता की पुर्जियाँ,
तब नहीं गिरेगी वह
ऊपर से नीचे जमीन पर
बल्कि गिरेगी
तुम्हारी मन-धरा पर
बनकर काँच की किर्चियाँ...
चुभेगी देर तक तुम्हें
लॉन के गुलमोहर की नर्म पत्तियाँ।
----स्मृति जोशी ''फाल्गुनी''
मैं जानती हूँ
मेरे जाने के बाद
वह जो तुम्हारी पलकों की कोर पर
रुका हुआ है
चमकीला मोती
टूटकर बिखर जाएगा
गालों पर
और तुम घंटों अपनी खिड़की से
दूर आकाश को निहारोगे
समेटना चाहोगे
पानी के पारदर्शी मोती को,
देर तक बसी रहेगी
तुम्हारी आँखों में
मेरी परेशान छवि
और फिर लिखोगे तुम कोई कविता
फाड़कर फेंक देने के लिए...
जब फेंकोगे उस
उस लिखी-अनलिखी
कविता की पुर्जियाँ,
तब नहीं गिरेगी वह
ऊपर से नीचे जमीन पर
बल्कि गिरेगी
तुम्हारी मन-धरा पर
बनकर काँच की किर्चियाँ...
चुभेगी देर तक तुम्हें
लॉन के गुलमोहर की नर्म पत्तियाँ।
----स्मृति जोशी ''फाल्गुनी''
ati sundar
ReplyDeleteधन्यवाद अना बहन
Deleteकोमल भाव लिए रचना...
ReplyDeleteसुन्दर...
:-)
शुभ प्रभात
Deleteशुक्रिया रीमा दी
Kisi se ;khas kr apno se ; manmutav ka bhav khud ko kushtt dena hi he. I like the imagination of the poetess in comparison of paper missiles with pointed glass needles. Achch ho kisi ka dil na dukhao .
ReplyDeleteधन्यवाद मलिक साहब
Deleteवाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
सस्नेह
अनु
शुभ प्रभात दीदी
Deleteधन्यवाद दी
वाह ... बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteधन्यवाद सदा बहन
Deleteबहुत खूब ... ऐसे छुपे हुवे लम्हे वो मोटी बन के मीकल आते हैं तकलीफ देते हैं ...
ReplyDeleteआभारी हूँ
Deleteशुक्रिया
bahut gahre jajbat hai.........
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
Deleteस्मृति दी की कलम
हरदम दिल को
छूती हुई चलती है
sach me un yadon ki narm pattiyan bahut chubhati hai..
ReplyDeleteKya bhav ukere hai !
शुक्रिया...भाई दयानन्द जी
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