तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Saturday, 24 February 2024

'साहित्य' अलग है, 'भाषा' अलग है





 भाषा में 
होता है ज्ञान
और...
अपना ज्ञान भी 
होता है भाषा का
छोटे शब्दों में कहिए तो
भाषा यानि
ज्ञान भी
न मौन है
भाषा
और न ही
ज्ञान मौन है
एक पहचान है
भाषा...
जो अपने आप में
पूर्णता तक ..
पहूँचती है
...
पहुँच है तो
एक मार्ग के साथ
और एक ही भाषा
होती ही नही मार्ग की
मौन होते हैं कई
बोलिया भी है कई
और अंततः
यही होता है
ज्ञान...
....

भाषा
सब की होती है
सब की 
अपनी भाषा होती है,
सब भाषा में ही होते हैं,
पर........ 
भाषा के मर्मज्ञ
सभी नहीं होते। 
हम सब केवल 
एकाध ही भाषा 
में होते हैं,
हमारा होना एक 
भाषा में होना मात्र है । 
एक भाषा में होना 
यानी.... 
एक सीमा के भीतर 
का निवासी होने की ही
बाध्यता है ।

-मन की उपज
*****************
साहित्यकारों, ख़बरदार, 'साहित्य' अलग है, 'भाषा' अलग है ।
अर्थात् उद्भ्रांत जी हिंदी की 100 उल्लेखनीय किताब लिखकर भी अब हिंदी की सेवा नहीं, केवल साहित्य की सेवा कर रहे हैं।

Thursday, 22 February 2024

झूठ छलकाती गागर ..





Saturday, 19 June 2021

कोई कवि नहीं था,रावण के राज्य में

कोई कवि नहीं था 
रावण के राज्य में 
भाषा थी सिर्फ़ लंकाई
जो रावण और 
उसके क़रीबी दैत्य बोलते थे

राम !
तुम्हारे नहीं रहने के बाद भी
तुम हो सर्वत्र,
तो इसलिए भी
तुम साहित्य में हो
केवल भाषा में नहीं

वो भी
इसलिए ही कि तुम्हारे साथ कवि थे !
 भाषा का अमर रस
कवि के पास ही होता है,
केवल दरबारी भाषा बोलने वाली
जनता के पास नहीं 

राम !
तुम और तुम्हारे राज्य की
भाषा भी बची हुई है
वह
 तो केवल साहित्य है
जहाँ तुम हो,
वहीं 
तुम्हारी भाषा भी है!

साहित्य ही पहचानता है कि
राम क्या है और
रावण क्या नहीं है

राम!
मरे हुए को समझाने कहूँगा नहीं,..क्योंकि 
मरा हुआ आदमी समझता भी कहाँ है,
उसकी तो भाषा भी नहीं होती !

एक कहावत है
 ''कौन पढ़ाये मूर्खों को कि
भाषा से साहित्य बनता है
''
किन्तु ''साहित्य से ही 
भाषा समृद्ध'' होती है,
और उन्हें तो कतई नहीं कि 
जो भाषा, साहित्य, संस्कृति और 
विचार के प्रति कहीं से भी गंभीर न हों 
-मन की उपज



Wednesday, 16 December 2020

रसहीन उत्सव

बीत गई
फीकी दीपावली
उत्साहविहीन
सुविधा विहीन
यंत्रवत जीवन जिया 
एक मशीन की तरह

सुबह से शाम तक
रात में भी सोने के पहले
एक चिंतन कि
कल की कल-कल
मन में असंतोष
खुशियाँ सारी समाप्त,

मास्क पहनने
और हाथ धोने में
बची खुची कसर
चढ़ गई बनकर भेंट
इस कहर भरी
विदेशी विषाणुओं रचित
महामारी कोरोना की भेट

घर पर रहकर मानव
महज निसहाय 'औ'
किस्से -कहानी तक
रह गया सीमित
यह महोत्सव दीपावली का
रस्म अदाई हो गई है..
-यशोदा
तस्वीर क्या बोले समूह मे स्वरचित






Sunday, 25 October 2020

नारी की आकांक्षा


एक स्त्री के लिए
प्रेम से बढ़कर भी
कुछ हो सकता है,
तो वो है सम्मान
या रिस्पेक्ट..।

क्षणिक हो सकता है
प्रेम ..पर
सम्मान नहीं होता
क्षणिक..वो क्यों
दिखावटी हो सकता है
प्रेम....पर
सम्मान नहीं

एक दिलचस्प बात
कि ईश्वर ने स्त्री को
ऐसी शक्ति दी है
जिससे वह
पढ़ सकती है
किसी भी पुरुष के भावों को
और पुरुष द्वारा 
दिया गया
सम्मान भाव को
स्थापित कर लेती है

अपने मन में वह स्त्री
शायद इसी लिए
स्त्री से दिखावा करना
संभव नहीं..।

-मन की उपज
टिप्पणी..
नारी की अभिलाषा और कार्य क्षमता का विश्लेषण..
रचना मन में स्वतः विस्फोटित हुई

Sunday, 10 May 2020

वक़्त की हर गाँठ पर ....मन की उपज

वक़्त की
हर गाँठ पर
हँसते-मुस्कुराते जीने
के लिए
कुछ संज़ीदगी भी 
जरुरी है।

ये जो दौर है
महामारी का
वायरस के डंक से
च़िहुँककर 
दूर छिटकना
लॉकडाउन के पिंजरें में
फड़फड़ाना
मजबूरी है।

संज़ीदगी 
मात्र सोच में क्यों
जीने के तौर-तरीकों में
"मेरी मर्जी"
ऐसी क्यूँ
मग़रूरी है।

मौत को
तय करने दीजिए
 फ़ासला
ज़िंदगी
जीने वालों के
नज़रिए से
पूरी या अधूरी है।
©यशोदा

Saturday, 7 March 2020

जिजीविषा ....मन की उपज


स्त्रियों का हास्य बोध 
और जिजीविषा
गिन नहीं पाएँगे आप
कितनों के निशाने पर रहती है स्त्री
हारी नहीं फिर भी
रहती है हरदम जूझती
कभी हंसकर..तो
कभी खामोशी से
या फिर करके विद्रोह..
कारण है एक ही
उसने हर तरह की
चुनौतियां और मुश्किलें
हंसकर पार की है
वजह है..
प्रकृति ने उसे 
असंख्य गुण
व अद्भुत सहनशीलता
के गुणों से 
नवाजा है
सामाजिक
निशानदेही 
स्त्रियों के बिना
अकल्पनीय है
धैर्य का पल्लवन है वो
स्नेह और प्यार का
अतुल कोश है उसके पास
कितना भी लिखूँ 
स्त्रियों को
क़लम के दायरे से
उफ़नकर
बह ही जाती हैं।
-मन की उपज