Friday, 13 September 2019

हिन्दी में हैं हम..


हिस्सा है हिन्दी
हमारे अस्तित्व का ...
ये वो पुल है जो...
ले जाती है सुखों तक
पहुंचाती है हमें
संतुष्टि के शिखरो पर
जोड़ती है..हमें
हमारी जड़ों से
बताती है पता..
ज्ञान का..... जिसे
संजोया गया है
करोड़ों लोगों द्वारा
वर्षों से...और
ले जाती है हमें..
एक सार्थक
जीवन की ओर
कुल मिलाकर
आप भी सहमत होंगे
हिन्दी में हैं हम
और हिन्दी हममें है
मन की उपज

Monday, 24 June 2019

बड़प्पन

बड़प्पन
मायके आयी रमा, माँ को हैरानी से देख रही थी। माँ बड़े ध्यान से 
आज के अखबार के मुख पृष्ठ के पास दिन का खाना सजा रही थी। दाल, रोटी, सब्जी और रायता। फिर झट से फोटो खींच व्हाट्सप्प 
करने लगीं।
"माँ ये खाना खाने से पहले फोटो लेने का क्या शौक हो गया 
है आपको ?"

"अरे वो जतिन बेचारा, इतनी दूर रह हॉस्टल का खाना ही खा रहा है। कह रहा था की आप रोज लंच और डिनर के वक्त अपने खाने की तस्वीर भेज दिया करो उसे देख कर हॉस्टल का खाना खाने में आसानी रहती है। "

"क्या माँ लाड-प्यार में बिगाड़ रखा है तुमने उसे। वो कभी बड़ा भी होगा या बस ऐसी फालतू की जिद करने वाला बच्चा ही बना रहेगा !" रमा ने शिकायत की।

रमा ने खाना खाते ही झट से जतिन को फोन लगाया।

"जतिन माँ की ये क्या ड्यूटी लगा रखी है? इतनी दूर से भी माँ को तकलीफ दिए बिना तेरा दिन पूरा नहीं होता क्या ?"
"अरे नहीं दीदी ऐसा क्यों कह रही हो। मैं क्यों करूंगा माँ को परेशान?"
"तो प्यारे भाई ये लंच और डिनर की रोज फोटो क्यों मंगवाते हो ?"
बहन की शिकायत सुन जतिन हंस पड़ा। फिर कुछ गंभीर स्वर में 
बोल पड़ा :
"दीदी पापा की मौत , तुम्हारी शादी और मेरे हॉस्टल जाने के बाद अब माँ अकेली ही तो रह गयी हैं। पिछली बार छुट्टियों में घर आया तो कामवाली आंटी ने बताया की वो किसी- किसी दिन कुछ भी नहीं बनाती। चाय के साथ ब्रेड खा लेती हैं या बस खिचड़ी। पूरे दिन अकेले उदास बैठी रहती हैं। तब उन्हें रोज ढंग का खाना खिलवाने का यही तरीका सूझा। मुझे फोटो भेजने के चक्कर में दो टाइम अच्छा खाना बनाती हैं। फिर खा भी लेती हैं और इस व्यस्तता के चलते ज्यादा उदास भी नहीं होती। "
जवाब सुन रमा की ऑंखें छलक आयी। रूंधे गले से बस इतना बोल पायी .......
भाई तू सच में बड़ा हो गया है.....

My Photo
ये रचना अपराजिता जग्गी ने लिखी है
अभी ये सूचना प्राप्त हुई है
सादर आभार

Wednesday, 29 May 2019

ज़िंदगी के मायने और है


आज की चाहतें और है
कल की ख़्वाहिशें और हैं
जो जीते है ज़िंदगी के पल-पल को
उसके लिये ज़िंदगी के मायने और है

हसरतें कुछ और हैं
वक़्त की इल्तज़ा कुछ और है
हासिल कुछ हो न हो
उम्र का फलसफ़ा कुछ और है

कौन जी सका है...
ज़िन्दगी अपने मुताबिक
वक़्त की उंगली थामे
हर मोड़ की कहानी कुछ और है 

ख़यालों के सफ़र में
हक़ीकत और ख़्वाब बुने जाते हैं
दिल चाहता कुछ और है
पर होता कुछ और है

यूं तो जिंदगी में आवाज देने वाले,
ढेरों मिल जायेंगे .......!!
कुछ पल सुकून आ जाये
ऐसे हमनवां का एहसास और है.....!!

मन की उपज

Monday, 11 March 2019

तुमसे मिलने के बाद.......अज्ञात

तुम्हे जाने तो नही देना चाहती थी ..
तुमसे मिलने के बाद
पर समय को किसने थामा है आज तक
हर कदम तुम्हारे साथ ही रखा था ,ज़मीं पर
बहुत दूर चलने के लिए
पर रस्ते भी बेवफा निकले
समेट ली , अपनी लम्बाई
फिर दूर तुम्हारी ही आखो से
देखने लगी खुबसूरत नज़ारे
और खोने लगी ना जाने कहाँ
तभी तुमने जगाया ख्वाब से
कहते हुए जी लो हर पल
याद करने के लिए जीवन भर
तुम्हारी बातो का उफान
देता रहा मन को आकार
कभी भीगती रही
कभी उड़ती रही ,रेतीली धूल बन के
पर उड़ते हुए भी भीगने का एहसास बाकी रहा
मिलने की ख्वहिश बाकि रही
साँसे भी थमी रही तुम्हारे इंतज़ार में ..!! 

--अज्ञात
प्रस्तुतिकरणः सोनू अग्रवाल

Wednesday, 30 January 2019

शब्दों का खेत


'शब्दों के खेत' में
आओ खामोशियों को बोएँ
तितलियों के पंखो को
सपनो की जादुई छड़ी से
सहलाएं....

अंतर्मन की आंखो से

बीते हुए वक्त को सहेजें...
कल-कल करती नदियों से
उसकी सहजता का भेद पूछें....
लोरी की बोलों को बोएं.....

सपनो के सिराहने,

नींद की अठखेलियों से खेलें...
एक नया खेत जोतने की
तैयारी में जुट जाएं.....
आओ, शब्दों के खेत में
खामोशी को फिर से बोएं....
- साजिदा आपा की रचना से प्रेरित