Wednesday, 9 May 2018

सरेआम भले ही हो....यशोदा


उसे पाने की 
कोशिश का
चढ़ा है नशा..
है आ रही महक
गुलाब की
रात देखा था 
इक ख़्वाब सा
किया था हमने
इज़हार प्यार का
कर रहा हूँ इन्तेज़ार
तेरे इकरार का
किया है इक वादा
वफ़ा का
पर....
पुरज़ोर कोशिश
कि, मेरी मोहब्बत
सरेआम भले ही हो
पर तमाम न हो 
मन की उपज
-यशोदा

Thursday, 12 April 2018

अहिल्या को नहीं भुगतना पड़ेगा.....मन की उपज


विडम्बना 
यही है की 
स्वतंत्र भारत में 
नारी का 
बाजारीकरण किया जा रहा है,

प्रसाधन की गुलामी, 
कामुक समप्रेषण 
और विज्ञापनों के जरिये 
उसका.......... 
व्यावसायिक उपयोग 
किया जा रहा है. 

कभी अंग भंगिमाओं से, 
कभी स्पर्श से, 
कभी योवन से तो 
कभी सहवास से 
कितने भयंकर परिणाम 
विकृतियों के रूप में 
सामने आए हैं, 

यही नही 
अनाचार के बाद 
जिन्दा जला देने 
जैसी निर्ममता से 
किसी की रूह 
तक नहीं कांपती 

क्यों....क्यों.. 
आज भी 
पुरुषों के लिये 
खुले दरवाजे 

और....और.. 
स्त्रियों के लिये
उफ....... 
कोई रोशनदान तक नहीं?

मैं कहती हूँ.... 
स्त्री नारी होती नहीं 
बनाई जाती है. 

हम सबको 
अब यह संकल्प लेना होगा 
कि अब और नहीं..
कतई नहीं, 
अब किसी इन्द्र के 
पाप का दण्ड 
अब किसी भी 
अहिल्या को 
नहीं भुगतना पड़ेगा

मन की उपज
-यशोदा
डायरी से....
28-9-14

Saturday, 17 March 2018

फिर...आपकी देह के इर्द-गिर्द... मन की उपज

जब आप बीमार रहते हैं तो 
बना रहता है हुजूम
तीमारदारों का 
और ये.. 
वो ही रहते हैं 
जिनकी बीमारी में...
आपने चिकित्सा व्यवस्था 
करवाई थी 
पर भगवान न करे...
आपकी मृत्यु हो गई 
तो...वे 
आपको आपके घर तक 
पहुंचा भी देंगे..
और फिर...
....आपकी देह के 
इर्द-गिर्द... 
रिश्तेदारों का 
जमावड़ा शुरु हो जाएगा...
कुछ ये जानने की 
कोशिश में रहेंगे कि 
हमें कुछ दे गया या नहीं....
यदि नहीं तो... 
आस लग जाती है 
घर के बचे लोगों से 
कि निशानी को तौर पर 
क्या कुछ मिलेगा..
पर डटे रहते हैं 
पूरे तेरह दिन तक...
-यशोदा-मन की उपज

Wednesday, 7 March 2018

एक ख़त परमपिता परमेश्वर के नाम


हे परमपिता परमेश्वर
श्रद्धेय हृदय वंदन।

इस संसार की हम सभी महिलाएँ आपको धन्यवाद देना चाहती हैं कि आपने हमें अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति और सबसे खूबसूरत करिश्में के रूप में धरती पर भेजा है। आपने हमें वो तमाम गुणों से अलंकृत किया , जो संसार में किसी और के पास नहीं।
आपने हमें प्यार, ममता, मासूमियत, सच्चाई, हिम्मत, हौसला, बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता...जैसे वो गुण दिए जो महिलाओं को ख़ास बनाते हैं, परिवार बनाने व जोड़े रखने का हुनर दिया....और सबसे बड़ा ओहदा "मां बनने का सौभाग्य" यहां धरती पर ऐसा कहा जाता है कि आप यदि ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं तो अपनी माँ को देख लें..ये आपका आशीर्वाद ही है, वरना इस धरती पर ऐसा सम्मान किसी और को हासिल नहीं है।
बस,  आपसे एक विनती है कि हमें ये शक्ति भी प्रदान करे कि हम महिलाएँ एक - दूसरे की ताकत बनें कमजोरी नहीं, हम एक-दूसरे का दर्द समझे और उससे उबरने कोशिश भी मिलकर करे, महिलाओं को लिए महिलाओं की ये कोशिश बहुत जरूरी है। बिखरी हुई महिला शक्ति संगठित होकर अपनी दशा और दिशा में सकारात्मक परिवर्तन करने में सक्षम है। स्वयंसिद्धा नारी को किसी भी अन्याय, कुरीतियों और जुल्म के आगे मजबूर नहीं होना होगा अगर वो एकजुट हो जाये।
अपना संबल पुरुष में ढूँढती नारी को अगर नारी से सहारा मिले तो सही मायने में अपनी आज़ादी जी पायेंगी।
सप्रेम
आपकी यशोदा

Wednesday, 14 February 2018

ना होती स्त्री मैं तो


सीमित हूँ 
बहुत.....मैं
शब्दों में....
अपने ही
लेकिन, हूँ
विस्तृत बहुत
अर्थों में..... मेरे
अपने ही...
ना होती स्त्री 
मैं  तो...कहो
कहाँ होता...अस्तित्व 
तुम्हारा.........भी
मेरे होने से.... ही
तुम पुरुष हो....वरना 
व्यर्थ है... 
तुम्हारा...यह 
व्यक्तित्व....
-मन की उपज

Monday, 29 January 2018

हो रहे पात पीत


हो रहे 
पात पीत
सिकुड़ी सी 
रात रीत
ठिठुरन भी 
गई बीत
गा रहे सब
बसंत गीत
भरी है
मादकता
तन-मन-उपवन मे.
समय होता 
यहीं व्यतीत
बौराया मन
बौरा गया तन
और बौराई
टेसू-पलाश
गीत-गात में 
भर गई प्रीत
-मन की उपज

Tuesday, 9 January 2018

जलता रहता है अलाव एक


जाने के बाद
तुम्हारे
अक्सर
ख़्यालों में 
तुमसे मिलकर
लौटने के बाद
हल्की-हल्की
आँच पर
खदबदाता रहता है
तुम्हारा एहसास 
लिपट कर साँसों से
पिघलता रहता है
कतरा-कतरा।
बनाने लगती हूँ
कविता तुम्हारे लिए
अकेलेपन की.......
जलता रहता है
अलाव एक
बुझते शरारों के बीच
फिर उम्मीद जगती है
और एक मुलाकात की
फिर.....तुम्हारे लिए
तुमसे मिलूँ.....
एक और नई
कविता के लिए

-यशोदा
-मन की उपज

Wednesday, 3 January 2018

आनन्द प्रेम का...



आनन्द
प्रेम का...
असम्भव है 
शब्दों में 
बता पाना
और ये भी कि 
क्या है प्रेम का
कारण... 
यह गूंगे का गुड़ है 
देह, मन, आत्मा का 
ऐसा आस्वाद है 
जिसके विवेचन में
असमर्थ हो जाती
इंद्रियां भी...
अलसा जाती हैं....
आस्वाद प्रेम का 
अनुभव तो करती हैं 
पर उसी रूप में
नहीं कर पाती
व्यक्त 
यही कारण है कि 
आज भी प्रेम 
अपरिभाषित है, 
नव्य है....
काम्य है....
ऐसा कौन सा
जीव होगा...
जो अछूता है
जादू नहीं चला
अबोध हो या
सुबोध हो 
अज्ञ, तज्ञ या विज्ञ
भी समझते हैं
आभा प्रेम की
स्पर्श प्रेम का
देह, मन और आत्मा को 
छू लेता है.... 
पेड़-पौधे तक 
इस स्पर्श को 
समझते हैं....
सृष्टि का आधार
प्रेम ही तो है....और
ये सृष्टि भी...
उसी का सृजन है
कहने को तो
अक्षर ढाई ही हैं
पर है तो..अब तक
अपरिभाषित...

-यशोदा
मन की उपज