Thursday, 29 September 2011

अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है .............सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

हवा जो नर्म है ,साज़िश ये आसमान की है
वो जानता है परिंदे को ज़िद उड़ान की है............

मेरा वजूद ही करता है मुझसे ग़द्दारी
नहीं तो उठने की औकात किस ज़ुबान की है ............

हमारे शहर में अफ़सर नयी जो आई है
सुना है मैंने, वो बेटी किसी किसान की है ..............

अभी भी वक़्त है मिल बैठकर ही सुलझालो
अभी तो बात फ़क़त घर के दरमियान की है ..........................

जवान जिस्म से बोले बुलंदियों के नशे
रहे ख़याल की आगे सड़क ढलान की है ...............

तेरी वफ़ा पे मुझे शक है कब मेरे भाई
मिला है मौके से जो बात उस निशान की है ..........

ये मीठा नर्म सा लहजा ही सिर्फ उसका है
अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है .............


-----सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

दिल के छालों का ज़िक्र आता है................................शरद तैलंग



दिल के छालों का ज़िक्र आता है।
उनकी चालों का ज़िक्र आता है।

प्यार अब बाँटने की चीज़ नहीं,
शूल भालों का ज़िक्र आता है।

सूर मीरा कबीर मिलते नहीं,
बस रिसालों का ज़िक्र आता है।

लोग जब हक़ की बात करते हैं,
बंद तालों का ज़िक्र आता है।

आग जब दिल में उठने लगती है
तब मशालों का ज़िक्र आता है।

जल के मिट तो रहे हैं परवाने,
पर उजालों का ज़िक्र आता है।

देखकर हाल अब ज़माने का,
गुज़रे सालों का ज़िक्र आता है।
......शरद तैलंग 

वाह क्या बात है............महेंद्र प्रताप सिंह

वाह क्या बात है
सरकार बहुत ही स्मार्ट है
समस्याओं से निपटने के
कई तरीके इसके पास हैं
साइन करना सिख लो
निरक्षर से साक्षर आप हैं|

कहते भारत में
70% लोग ग़रीब हैं
तंग आकर सरकार ने
ग़रीबी से लड़ने का
नया फ़ॉर्मूला निकाला
32 रुपये खर्च करने वाले को
अमीरी का दर्जा दिलाया.

लोग भूख-तंग-हाल में
जब करते आत्म हत्या
तो सरकार कहती
कुछ नही ये बस बाबल हैं.

इससे भी लड़ने का
फिर नया फ़ॉर्मूला निकाला
अब खुदकुशी को ही
आसान बना डाला.

आत्महत्या अपराध है
309 धारा ये कहती थी
अगर मरते-मरते बच गये तो
एक साल की सज़ा और जुर्माना भरते थे.
अगले एक साल में
309 धारा ख़त्म हो जाएगी
तब मरने की राह और आसान बन जाएगी.

फिर क्या सरकार हर मोर्चे पर कामयाब हो जाएगी?

..........महेंद्र प्रताप सिंह


Saturday, 24 September 2011

इन उजालों के शहर में.....प्रकाश नारायण



इन उजालों के शहर में
सिर्फ अंधियारा बचा है
आइए कुछ दीप अपनी
आत्मा के हम जलाएं



                                      यूँ यहाँ पर रोशनी
                                      बेजार ही होती रही तो
                                     मुल्क की खातिर बुझे
                                     उन चाँद तारों को जगाए



हर जगह कालिख बनीं
अब प्रेरणाएं वक्त की
है कहां चंदन जिसे हम
भाल पर अपने लगाएं



                                    देश का आदर्श अब तो
                                   भ्रष्ट जीवन-जाल है
                                   रह गई है आज बाकी
                                  महज स्वप्निल वर्जनाएं

छंद हम टाँके कहाँ तक
रोशनी के पक्ष में
कालिमा के पृष्ठ कैसे
आज गोया भूल जाएं



                                   गर चमकना चाहते हो
                                   तो उठा लो फिर मशालें
                                   बुझाती जिनकी रही हैं
                                   स्वार्थ की पछुआ हवाएं


यह जमाना खोट का है
सच कहें तो वोट का है
तंत्र का जादू यहाँ पर
आओ हम तुमको दिखाएं


                                   देखी तो दुनिया निराली हो गई
                                   श्वेत होकर भी ये काली हो गई है
                                   यही इतिहास का क्रम देख लो
                                   जाते-जाते मिट रही उनकी सदाएं

-------प्रकाश नारायण

मेरा ही कदम पहला हो............ यश चौधरी

मेरा ही कदम पहला हो,
उस जहाँ की तरफ, जिसकी ख्वाहिश मुझमें है

जो ख्वाब उन सूनी आँखों ने देखा ही नहीं,
उसे पूरा करने की गुंजाइश मुझमें है

खुदा को आसमानों में क्यूँ ढूंडा करूँ?
जब उसकी रिहाइश मुझमें है

एक कारवाँ भी साथ हो ही लेगा,
ऐसी अदा-ऐ-गुज़ारिश मुझमें है

खुदगर्ज़ी की लहर में बर्फ हुए जातें हैं सीने,
दिलों के पिघलादे, वो गर्माइश मुझमें है

मेरे ख्वाबों, मेरे अरमानों के लिए औरों को क्यों ताकूँ?
इनकी तामीर की पैदाइश मुझमें है
---यश चौधरी

अश्क़ बन कर जो छलकती रही.........द्विजेन्द्र ‘द्विज’

अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी

मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी

लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी

दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने
ज़ेहन में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी

कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी
----------द्विजेन्द्र ‘द्विज’

अजीब अन्दाज़ की ये ज़िन्दगी महसूस होती है.......डॉ. फ़रियाद "आज़र"


अजीब अन्दाज़ की ये ज़िन्दगी महसूस होती है
भली मालूम होती है, बुरी महसूस होती है

ये साँसें भी मुसलसल खुदकुशी का नाम हैं शायद
मैं जितना जीता हूँ, उतनी नफ़ी मह्सूस होती है

जो हाज़िर है कभी उस पर तवज्जो ही नहीं जाती
नहीं जो सामने उसकी कमी महसूस होती है

ज़रा सा गम भी अक्सर साथ देता है मेरा सदियों
खुशी कितनी भी हो क्यों आरिज़ी महसूस होती है

अजीब इन्सां है अब भी ज़िन्दगी के गीत गाता है
मुझे हर साँस उसकी आखिरी मह्सूस होती है

फ़िज़ाओं तक ही गर महदूद रह्ती तो भी जाता
खलाओं में अब आलूदगी महसूस होती है

कभी आया था मेरी ज़िन्दगी में ज़लज़ला ’आज़र’
मुझे अब तक ज़मीं हिलती हुई महसूस होती है
-------डॉ. फ़रियाद "आज़र"

औरतों के जिस्म पर सब मर्द बने हैं.......रवि कुमार


औरतों के जिस्म पर सब मर्द बने हैं
मर्दों की जहाँ बात हो, नामर्द खड़े हैं

शेरों से खेलने को पैदा हुए थे जो
नाज़ुक़ किसी के बदन से वो खेल रहे हैं

हर वक़्त भूखी आँखें कुछ खोज रही हैं
भूखे बेजान जिस्म को भी नोंच रहे हैं

गुल ही पे नहीं आफ़त गुलशन पे है क़यामत
झड़ते हुए फूलों पे, वे कलियों पे पड़े हैं

मरने की नहीं हिम्मत ना जीने का सलीक़ा
हम सूरत – ए - इंसान बेशर्म बड़े हैं
--------------रवि कुमार

गर बेटियों का कत्ल यूँ ही कोख में होता रहेगा.........डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’


गर बेटियों का कत्ल यूँ ही कोख में होता रहेगा!
शर्तिया इन्सान अपनी पहचान भी खोता रहेगा!!

मर जायेंगे अहसास सारे खोखली होगी हँसी,
साँस लेती देह बस ये आदमी ढोता रहेगा!!

स्वर्ग जाने के लिए बेटे की सीढी ढूँढ कर,
नर्क भोगेगा सदा ये आदमी रोता रहेगा!!

ढूँढ लेगा चंद खुशियाँ अपने जीने के लिए,
आदमी बिन बेटियों के मुर्दा बन सोता रहेगा!!

चैन सब खोना पड़ेगा बदनाम होगा आदमी,
बेटियों को मरने का दाग बस धोता रहेगा!!
--डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’

Wednesday, 21 September 2011

जिन्दगी का कसूरवार हूँ ..............यश चौधरी

खुद अपने आप पे मुझको था ऐतबार बहुत
अब अपने आप से रहता हूँ होशियार बहुत

वो जिसने कोई भी वादा नहीं किया मुझसे
उस एक शख्स का रहता है इंतज़ार बहुत

वो खुद तो मेरी पहुँच से निकल गया बाहर
जता रहा है मगर मुझपे इख़्तियार बहुत

शरीक दिल से खुशी में न हो सका मेरी गी
वो लग रहा था मुझे मेरा गमगुसार बहुत

तमाम उम्र तजुर्बों में काट दी मैंने
मैं जिन्दगी का रहा हूँ कसूरवार बहुत

---यश चौधरी

शहनाई-शहनाई है..............यश चौधरी

चाहे जितना कष्ट उठा ले, अच्छाई-अच्छाई है।
खुल जाता है भेद एक दिन, सच्चाई-सच्चाई है।

होती है महसूस जरूरत, जीवन में इक साथी की,
तनहा जीवन कट नहीं सकता,तनहाई-तनहाई है।

पूरे बदन को झटका देना,हाथों को ऊपर करके,
सच पूछो तो तेरी उम्र की, अँगडा़ई-अँगडा़ई है।

भाषा अलग अलग पहनावा,अलग अलग हम रहतें हैं,
लेकिन हम सब हिन्दुस्तानी, भाई-भाई-भाई हैं।

गम़ में खुशी में एक सा रहना,जैसे एक सी रहती है;
सुख-दुख दोनों में बजती है, शहनाई-शहनाई है।
---यश चौधरी

सिसकते आब में किस की सदा है......... डॉ. बशीर बद्र

सिसकते आब में किस की सदा है
कोई दरिया की तह में रो रहा है

सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा
ख़ुदा चरो तरफ़ बिखरा हुआ है

समेटो और सीने में छुपा लो
ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है

पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती है
बदन अपना सुनेहरा हो चला है

हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है
समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है

हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता
हवा के होंठ अक्सर चूमता है

मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है

-डॉ, बशीर बद्र

कसक..........................डॉ. बशीर बद्र

ये कसक दिल की दिल में चुभी रह गयी
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी

एक मैं एक तुम एक दीवार थी
ज़िन्दगी आधी आधी बटी रह गयी

मैंने रोका नहीं वो चला भी गया
बेबसी दूर तक देखती रह गयी

मेरे घर की तरफ धुप की पीठ थी
आते आते इधर चांदनी रह गयी.......
-बशीर बद्र

हमारा दिल.......बशीर बद्र

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए

मैं ख़ुद भी एहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए

अजब हालात थे, यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए

समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए

मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए
--बशीर बद्र

तब याद आया..................................सचिन

तब याद आया हमको कि चोटों ने क्या दिया
इन पत्थरों ने जब हमे चलना सिखा दिया

छोटी सी जिद पे बच्चे कि आँखे जो नम हुई
थाली में चाँद माँ ने ज़मीं पर ही ला दिया

आँखों ने जब भी की है नयी रौशनी की जिद
हमने भी एक चिराग जलाया बुझा दिया

ये सुनके मेरी बेटियाँ सहमी हुई हैं आज
फिर से रसोई में कोई जिंदा जला दिया

खुद शर्म आई फिर हमे अपने रुसूख पर
सिक्के को जब फ़कीर ने मिटटी बना दिया......

-सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

तन्हा उदास रहने दे...........मुजाहिद

गम ए जहाँ से मुझे रूशनाज़ रहने दे
जहान भर कि ख़ुशी अपने पास रहने दे

तेरा वजूद है दरिया सिफत मगर अफ़सोस
बुझा न पायेगा तू मेरी प्यास रहने दे

जो तिश्ना लब हैं पिला तू उन्हें मय ए उल्फत
हमारे हाथ में खाली गिलास रहने दे....

नसीब है जो तेरा उसके साथ तू खुश रह
हमे इसी तरह तन्हा उदास रहने दे...........

-मुजाहिद

मैं तन्हा नहीं..........................सचिन

नहीं तन्हा नहीं हूँ मैं
भले तेरा नहीं हूँ मैं

समंदर दूर रह मुझसे
बहुत प्यासा नहीं हूँ मैं

मेरे मांझी पलटकर आ
अभी टूटा नहीं हूँ मैं

सभी किरदार हैं मुझ में
ये पूछो क्या नहीं हूँ मैं

ये आईना बताता है
कि पहले सा नहीं हूँ मैं

तू अपनी प्यास से कह दे
कोई दरिया नहीं हूँ मैं
-सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

कोई काँटा चुभा नहीं होता.................बशीर बद्र

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता

-बशीर बद्र