तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Tuesday, 13 December 2011

सिमट गई सूरज के रिश्तेदारों तक ही धूप.....डॉ. जगदीश व्योम


सिमट गई
सूरज के रिश्तेदारों तक ही धूप
न जाने क्या होगा
घर में लगे उकसने काँटे
कौन किसी का क्रंदन बाँटे
अंधियारा है गली गली
गुमनाम हो गई धूप
न जाने क्या होगा
काल चक्र रट रहा ककहरा
गूँगा वाचक, श्रोता बहरा
तौल रहे तुम, बैठ-
तराजू से दुपहर की धूप
न जाने क्या होगा
कंपित सागर डरी दिशाएँ
भटकी भटकी सी प्रतिभाएँ
चली ओढ़ कर अंधकार की
अजब ओढ़नी धूप,
न जाने क्या होगा
घर हैं अपने चील घोंसले
घायल गीत जनम कैसे लें
जीवन की अभिशप्त प्यास
भड़का कर चल दी धूप
न जाने क्या होगा
सहमी सहमी नदी धार है
आँसू टपकाती बहार है
भटके को पथ दिखलाकर, खुद-
भटक गई है धूप
न जाने क्या होगा
स्मृतिमय हर रोम रोम है
एक उपेक्षित शेष व्योम है
क्षितिज अँगुलियों में फँस कर फिर
फिसल गई है धूप
न जाने क्या होगा
बलिदानी रोते हैं जब जब
देख देख अरमानों के शव
मरघट की वादियाँ
खोजने लगीं
सुबह की धूप
न जाने क्या होगा 
--डॉ. जगदीश व्योम

18 comments:

  1. अद्भुत रचना पढवाई.... आभार

    ReplyDelete
  2. आप ने अपना कीमती वकत निकल के मेरे ब्लॉग पे आये इस के लिए तहे दिल से मैं आपका शुकर गुजर हु आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
    मेरी एक नई मेरा बचपन
    कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: मेरा बचपन:
    http://vangaydinesh.blogspot.in/2012/03/blog-post_23.html
    दिनेश पारीक

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर भाव

    ReplyDelete
  4. london olympic bicycle company
    Excellent Working Dear Friend Nice Information Share all over the world.God Bless You.
    Bicycle shops in north London
    cycle shops north in london

    ReplyDelete
  5. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  6. Replies
    1. शुक्रिया नवीन भाई

      Delete
  7. Sundar rchna yashoda ji....kabse apki link dhundne ki koshish kar rahi thi....sorry apke blog pe bohot der se aa payi....

    ReplyDelete
  8. धन्यवाद नूपुर बहन
    आप आ तो गई
    जहाँ चाह हो राह निकल ही जाती है
    सादर
    यशोदा

    ReplyDelete
  9. शुक्रिया तृप्ति जी

    ReplyDelete
  10. अच्छी रचना पढवाने के लिए धन्यवाद.

    ReplyDelete
  11. स्मृतिमय हर रोम रोम है
    एक उपेक्षित शेष व्योम है
    -------------------
    badhiya rachna

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपको रचना अच्छी लगी, आभार

      डा० जगदीश व्योम

      Delete
  12. स्मृतिमय हर रोम रोम है
    एक उपेक्षित शेष व्योम है
    क्षितिज अँगुलियों में फँस कर फिर
    फिसल गई है धूप
    न जाने क्या होगा
    बलिदानी रोते हैं जब जब
    देख देख अरमानों के शव
    मरघट की वादियाँ
    खोजने लगीं
    सुबह की धूप
    न जाने क्या होगा

    beautiful lines with great emotions and feelings

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपको रचना अच्छी लगी, आभार

      डा० जगदीश व्योम

      Delete
  13. बहुत सुन्दर, सार्थक रचना...

    ReplyDelete
  14. बहुत सुंदर अप्रतिम अनुपम।

    ReplyDelete