तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Thursday 26 January 2012

अच्छा पाठक बनना भी एक कला..............अफ्रीकी लेखक बेन ओकरी की राय

'अच्छा लेखक बनने की पहली शर्त है अच्छा पाठक बनना। लेखन की कला के साथ ही पढ़ने की कला भी विकसित की जानी चाहिए ताकि हम और बुद्धिमत्ता व संपूर्णता के साथ लिखे हुए को ग्रहण कर सकें। मेरे लिए लिखना व पढ़ना दोनों निर्युक्तिदायक प्रक्रियाएं हैं।' ये उद्गार थे अफ्रीकी लेखक बेन ओकरी के।


अंग्रेजी में लिखने वाले बेन ओकरी दुनियाभर के पाठकों के बीच अपनी जगह बना चुके हैं। उनकी रचनाओं का दुनिया की बीस भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। 'द फेमिश्ड रोड' के रचनाकार को अपने बीच पाकर श्रोता मंत्रमुग्ध थे।


खचाखचभरे पांडाल में भी सुई तोड़ सन्नाटे में बैठकर लोगों ने ओकरी की बातों को और उनके रचना पाठ को सुना। उन्होंने अपनी मां के बारे में कविता पढ़ी। मोटे तौर पर शीर्षक का अनुवाद था 'सोती हुई मां'। उनकी पढ़ी एक अन्य कविता का अर्थ है- 'दुनिया में आतंक है तो दुनिया में प्यार भी है। मोहब्बत से भरी है यह दुनिया।'


लेखक ने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में भी बताया। नाइजीरियाई वाचिक परंपरा व आधुनिक विश्व का संगम अपनी रचनाओं में करने वाले इस लेखक के साथ बातचीत की चंद्रहास चौधरी ने।


एक अन्य सत्र में 'द पावर ऑफ मिथ' यानी मिथकों की शक्ति के बारे में लेखक गुरुचरण दास ने अरशिया सत्तार, जौहर सिरकार व अमिष त्रिपाठी से चर्चा की।


त्रिपाठी की भारतीय पौराणिकता के फॉर्मेट में लिखी दो किताबें 'द इम्मोरटल्स ऑफ मेहुला' व 'द सीक्रेट ऑफ नागास' बहुत चर्चित हुई हैं। इन किताब की प्रतियां लाखों में बिक चुकी हैं। इसे पौराणिक किस्सों के जादुई तिलस्म का प्रतीक मानें या और कुछ, फिलहाल तो पौराणिकता फिर चर्चा में है।


पौराणिक प्रतीकों की शक्ति की चर्चा करते हुए वक्ताओं ने कहा- 'पौराणिक किस्से हमें रस्मों और परंपराओं के रूप में प्रदान किए जाते हैं। इनमें से कुछ हमारे लिए धर्म का हिस्सा भी बन जाते हैं। पर कुल मिलाकर यह सदियों से बहते आए ज्ञान की गंगा बन जाते हैं। पौराणिक किस्से एक ऐसा झूठ है जो सच बताते हैं। इन किस्सों की कल्पना की उड़ान पढ़ने-सुनने का जादू जगाती है। अक्सर इन किस्सों के पात्र पर थीम कालातीत होती है।'


तमिल में लिखने वाली दलित लेखिका बामा फॉस्टीना ने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास कारुकू की रचना प्रक्रिया के बारे में बताया। तमिलनाडु के दूर-दूरस्थ गांव में रहते पली-बढ़ी लेखिका ने कहा- कारुकू का मतलब पान की कटीली पत्ती होता है। उनके समुदाय ने वैसा ही जीवन जिया है। बामा के उपन्यास को कई प्रकाशकों ने अस्वीकृत कर दिया था। अंततः एक चेरिटेबल ट्रस्ट ने इसे प्रकाशित किया और पढ़ने पर पाठकों ने इसे सराहा।


इसी सत्र में तमिल लेखक चारू निवेदिता ने भी अपना वक्तव्य रखा। विषय प्रवर्तन किया लेखिका व आयोजन की निदेशक नमिता गोखले ने। शब्द जगत के अलावा सुनहले पर्दे पर साहित्य लिखने वाले भी यहां मौजूद हैं व विभिन्न सत्रों में भागीदारी कर रहे हैं। गुलजार प्रसून जोशी के साथ अपने कहानी सत्र में छाए रहे। इन दोनों को सुनने के लिए दर्शकों में इतनी आतुरता थी कि आयोजकों को वेन्यू बदलना पड़ा। विधुविनोद चोपड़ा, अनुपमा चोपड़ा, संजना कपूर आदि फिल्मी हस्तियां भी हैं। लोग उत्साह और एकाग्रता से विश्लेषण सुन रहे हैं।
प्रस्तुतिः निर्मला भुरा‍ड़‍िया

Tuesday 24 January 2012

भले हों साथ रातो-दिन सभी हमदम नहीं होते ..................डॉ.महेंद्र अग्रवाल

गरीबों के लिये चावल कभी चमचम नहीं होते
सियासी लोग, ज़ख्मों पर कभी मरहम नहीं होते

मुझे वालिद ने दी ये सीख संगत देखकर मेरी
भले हों साथ रातो-दिन सभी हमदम नहीं होते

सफ़र अपना मुहब्बत का, मुसलसल है हयाते-गम?
बहुत कमजर्फ मिलते है, मेहरबां कम नहीं होते

करार आये मेरे अहसास के टूटे हुए दिल को
तुम्हारी आँख के जाले कभी भी नम नहीं होते

शिकस्तें लाख खाई दोस्तों ने जाल बुन बुनकर
रकीबों कि रही सुहबत कभी बेदम नहीं होते
~डॉ.महेंद्र अग्रवाल

ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक
२९ सदर बाज़ार, शिवपुरी

Friday 20 January 2012

चेहरा.....................तरुण पन्त

मैने देखा चिंता और प्यार,
झुर्रियों की तह के पीछे,
डबडबाती हुई आँखों में अजीब सी चमक,
और चेहरे पे एक खोखली सी हँसी,

मैले फटे हाथों की लकीरों को देखती हुई आँखें,
जैसे अब भी कुछ होने का इन्तजार है,
फिर देखती हुई पल्लू में पड़ी एक गांठ को,
जैसे जीवन भर की दस्तान उसमें हो,

कुछ यादों की पनाह में,
जैसे एक जिंदगी चल रही है,
वर्तमान के खांचे में,
अतीत की खिड़की खुल रही है,

कुछ सोचते हुए आँखे भर आई उसकी,
जैसे सिलापट पे बिखरी ओस की कुछ बूंदे हो,
डबडबायी आँखों में अब दर्द है,
और चेहरे पे एक जानी पहचानी सी मुस्कान ...


- तरुण पन्त

Thursday 19 January 2012

चलो दोस्ती की नई रस्म डालें................देवी नागरानी

बहारों का आया है मौसम सुहाना
नये साज़ पर कोई छेड़ो तराना।

ये कलियाँ, ये गुंचे ये रंग और ख़ुशबू
सदा ही महकता रहे आशियाना।

हवा का तरन्नुम बिखेरे है जादू
कोई गीत तुम भी सुनाओ पुराना।

चलो दोस्ती की नई रस्म डालें
हमें याद रखेगा सदियों जमाना।

खुशी बाँटने से बढ़ेगी ज़ियादा
नफ़े का है सौदा इसे मत गँवाना।

मैं देवी ख़ुदा से दुआ माँगती हूँ
बचाना, मुझे चश्मे-बद से बचाना।

---------देवी नागरानी

गंगा की हिफाजत मजहब – ए – हिंद है.......................आलोक तिवारी


विष्णु के पा से ये चरम – ए – सफा हुआ
तीनों जहां की शान में सिवा ईजाफा हुआ ।

गंगा तेरी जबीं पे लिख्खा पयाम – ए – गम
आवाज – ए – दिलखराश पे है चरम – ए – नम ।

गंगा की शोख तबियत से रश्क – ए – अदम हुआ
तेरे लव – ए – जू पे क्यू मजलिस – ए – मातम हुआ ।

सुपुर्द – ए – खाक तुझसे जन्नत का सबब है
गंगा की निगेहबानी में मरना भी गजब है ।

अश्के – हिमाला को आबे – हयात कहा
शक्ल – ए – गंगा में खां कायनात कहा ।

इसरार – ए – भागीरथ तू जहां में नुमूद हुई
तेरे मुकद्दम आब की दुनिया मुरीद हुई ।

काशी में शिव का मस्कन आबे – कश्क है
सदके में शंकर के ये गंगा के अश्क है ।

दमें आखिर गंगेय का लबे – तर किया
मां की ममता का तुने यू इजहार किया ।

मस्लत – ए – अदम ने तुझे तार – तार किया
इस इज्ने – आम ने दिल जार – जार किया ।

संग – ए – दिवार से तुझे महबूस कर रहे
बाखुदा लुटने का काम तेरे मानूस कर रहे ।

रुस्वा किया तुमको तेरे मेहरबान ने
सीना – फिगार किया तेरे मेजबान ने ।

तपीरा – ए – गरल को तूने हिमानी किया
शिव के व्योम – केश को पानी – पानी किया

आबे फिरदौस तु तेरी हस्ती अजीमतर
मल्लिका – ए – जहा तू तेरे नक्श करीमतर ।

गुनाह – ए - बशर को गंगा ने सवाब किया
हमने मुकद्दम आब को जहराब किया ।

गंगा की हिफाजत मजहब – ए – हिंद है
तेरा अंदाज – ए – मोहब्बत मां के मानिंद है ।

मुर्दः रवा किया ‘शौक’ आबे – हयात में
अक्से फना क्यूं दिख रहा परतवे – हयात में ।
------आलोक तिवारी
www.aloktiwari.org

Saturday 14 January 2012

जानवर...............................के.पी.सक्सेना

क्षणिकाएं

(1)

जानवर की कोख से

जनते न देखा आदमी

आदमी की नस्ल फिर क्यों

जानवर होने लगी।

(2)

गो पालतू है जानवर

पर आप चौकन्ने रहें

क्या पता किस वक़्त वो

इन्सान बनना ठान ले।

(3)

पड़ोसी मर गया, अब यह खबर अखबार देते हैं

सोच लो किस तर्ज़ में हम ज़िन्दगी का बोझ ढोते हैं,

अब तो मैं भी छोड़ता बिस्तर सुनो तस्दीक़ कर,

नाम मेरा तो नहीं था कल ’निधन’ के पृष्ठ पर।


------के. पी. सक्सेना

Friday 13 January 2012

आँख मूँद देखा मैंने सूर्य समाया नयनों में आज......डॉ. दीप्ति गुप्ता

एक विलक्षण अनुभूति
सृष्टि नजर आ रही
अनोखी-अनूठी............!
निरभ्र, स्वच्छ, उजला आकाश
सूर्य समाया नयनों में आज....

आज इच्छित, आराधित पूजित,
प्रार्थित पूर्ण जीवन की अभिलाष
सूर्य समाया नयनों में आज....

पुष्प, पल्लव, झरता निर्झर,
पुलकित करता मन को आज
मंद-मंद, सुगन्ध बयार कहता
जीवन परिवर्तित आज
सूर्य समाया नयनों में आज......

कल-कल करता सरिता का जल
कितना चंचल, कितना शीतल
धवल कौमुदी कर सम्मोहित
चहुँ दिशि रचती एक इन्द्रजाल
सूर्य समाया नयनों में आज.....

एक कामना मन में आती
होए भविष्य वर्तमान का साथी
शाश्वत, मधुर, मदिर आभास
पतझड बना बसन्त बहार
सूर्य समाया नयनों में आज.....

तमापूरित, मलिन, अशुचितम
कण-कण लघु जीवन के क्षण
सहसा बने नवल उल्लास
हुआ इन्द्रधनुष सुन्दर साकार
सूर्य समाया नयनों में आज ...

विधि ने रचा स्वर्ग धरती पर
कितना सुन्दर, कितना अभिनव
सार्थक है - ‘तत् त्वमसि’ आज
वृक्षों से झड़ते पुहुप लाज
सूर्य समाया नयनों में आज...

आँख मूँद देखा मैंने
अन्तरतम में मधुर उजास
सत्य, शिव, सुन्दर का बन्धन धोता
कलुष, मिटा अवसाद
सूर्य समाया नयनों में आज...

नहीं चकित होऊँगी
यदि- कहे इसे कोई सपना
सपना ही सही,
लेकिन है तो मेरा अपना !

---डॉ. दीप्ति गुप्ता

चाहा था उन्हें .........अपना बनाना .................दीप्ति शर्मा

कसूर इतना था कि  चाहा था उन्हें

दिल में बसाया था उन्हें कि

मुश्किल में साथ निभायेगें

ऐसा साथी माना था उन्हें |

राहों में मेरे साथ चले जो

दुनिया से जुदा जाना था उन्हें

बिताती हर लम्हा उनके साथ

यूँ करीब पाना चाहा था उन्हें

किस तरह इन आँखों ने

दिल कि सुन सदा के लिए

उस खुदा से माँगा था उन्हें

इसी तरह मैंने खामोश रह

अपना बनाना चाहा था उन्हें |



-  दीप्ति शर्मा

Thursday 12 January 2012

पीड़ा..........एक मूक रुदन............................चांदी दत्त शुक्ला

तुम्हारा दोस्त दुखी है...
उससे न पूछना, उसकी कातरता की वज़ह,
दुख की गंध सूखी हुई आंख में पड़ी लाल लकीरों में होती है।
ये सवाल न करना, तुम क्यों रोए?
कोई, कभी, ठीक-ठीक नहीं बता सकता अपनी पीड़ा का कारण।
दर्द की कोई भाषा नहीं होती।
कहानियों के ब्योरों में नहीं बयान होते हताशा के अध्याय,
न ही दिल के जख्मों को बार-बार ताज़ा चमड़ी उधेड़कर दिखाना मुमकिन होता है साथी।
कोई कैसे बताएगा कि वह क्यों रोया?
इतना ही क्यों, इस बार ही क्यों, इतनी छोटी-सी वज़ह पर,
ऐसे सवाल उसे चुभते हैं।
मत रो पड़ना उसे हताश देखकर,
वह घिर जाएगा ग्लानि में और उम्र भर के लिए।
नैराश्य होगा ही उसकी ज़ुबान पर और लड़खड़ा जाएगी जीभ,
बहुत उदास और अधीर होगा, अगर उसे सुनानी पड़ी अपनी पीड़ा की कथा।
तब भी यकीन करो, शब्दों में नहीं बांध पाएगा वह अपनी कमज़ोरी।
हो सके तो उसे छूना भी नहीं।
तुम्हारी निगाह में एक भरोसे का भाव है उसका सबसे कारगर मरहम,
उसमें बस लिखा रहे ये कहना – तुम अकेले नहीं हो।
उसकी भीगी पलकों को सूखने का वक्त देना
और ये कभी संभव नहीं होगा, उसे यह समझाते हुए –
गलतियां ये की थीं, इसलिए ऐसा हुआ!
हर दुखी आदमी मन में बांचता है अपने अपराध।
वह जड़ नहीं होता, नहीं तो रोया ही न होता।
दुख नए फैशन का छीटदार बुशर्ट नहीं है कि वह बता सके उसे ओढ़ने की वज़ह,
कोई मौसम भी नहीं आता रुला देने में जो हो कारगर।
हर बार आंख भी नहीं भीग जाती दुख में।
जब कोई खिलखिलाता हुआ चुप हो जाए यकायक,
तब समझना, कहीं गहरे तक गड़ी है एक कील,
जिसे छूने से भी चटख जाएंगी दिल की नसें।
उसके चेहरे पर पीड़ा दिखनी भी जरूरी नहीं है।
एक आहत चुप्पी, रुदन और क्षोभ की त्रासदी की गवाही है।
उसे समझना और मौजूद रहना,
बिना कुछ कहे,
क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती।
------चांदी दत्त शुक्ला

Wednesday 11 January 2012

मैं रुक गयी होती............................."दीप्ति शर्मा "

जब मैं चली थी तो
तुने रोका नहीं वरना
मैं रुक गयी होती |
यादें साथ थी और
कुछ बातें याद थी 
ख़ुशबू जो आयी होती
तेरे पास आने की तो
मैं रुक गयी होती |
सर पर इल्ज़ाम और
अश्कों का ज़खीरा ले
मुझे जाना तो पड़ा
बेकसूर समझा होता तो
मैं रुक गयी होती |
तेरे गुरुर से पनपी 
इल्तज़ा ले गयी
मुझे तुझसे इतना दूर
उस वक़्त जो तुने 
नज़रें मिलायी होती तो
मैं रुक गयी होती |
खफा थी मैं तुझसे 
या तू ज़ुदा था मुझसे
उन खार भरी राह में
तुने रोका होता तो शायद 
मैं रुक गयी होती |
बस हाथ बढाया होता 
मुझे अपना बनाया होता 
दो घड़ी रुक बातें 
जो की होती तुमने तो 
ठहर जाते ये कदम और 
मैं रुक गयी होती |
------ "दीप्ति शर्मा "

यादें .................आलोक तिवारी


एकाएक बंद हो गई
उन कदमो की आवाज़
आना
हम होते जिनके
अभ्यस्त |

अख़बार यूँ ही
रह जाते बिन
पलटाये
खाली ही रह जाती
वर्ग पहेली |

अलसुबह चाय ले जाते
हुए ठिठक गया
सूनी आराम कुर्सी देखकर
वो , जो मुददतो पहले
चले गए
पर उनकी याद में
आ गए
आँखों में ताजा गर्म आंसू|

चश्मे की गर्माहट
महसूस की थी कई बार
जब तुरंत उतरे चश्मे को
हाथो में लिया था
अब ठण्डा है|

अनायास नाम बदल गया
पता वही है
चिठ्ठियाँ आती है
मेरे नाम से
उनका नाम न होने से
हर बार कुछ और
टूट जाता हूँ मै |

पौधो की रंगत
उड़ चुकी है
बेरंग पौधे में
बेमन से खिले हुए है
कुछ फुल
वो ढूंढ़ते है
उन हाथों की
ऊष्मा |

कमरे से कोई नहीं
देता आवाज
न देर से आने की
वजह पूछता है
चुपचाप गुजर जाता हू मै
अपने कमरे तक |

उम्रदराज लोग
याद करके सुनाते
कुछ अनसुने किस्से
माँ के जाने के बाद
किस कदर टूट चुके थे
मुझको लेकर
फिक्रमंद थे
पिता के दोस्त
जो आखरी कुछ
गवाह है
जिन्होंने देखा
मेरा और पिता का प्रेम
एक दूसरे के प्रति |
--आलोक तिवारी

**ताले **...............मनोज गुप्ता

प्यार किया है मैंने,
उन लोंगो से ,जिनके जीवन में
बाहर निकलने के रास्ते में ,
कहीं न कहीं पड़े है छोटे बड़े ताले !

पास रह के भी नहीं खुलते ,
अपनाने पड़ते हैं टेढ़े मेढ़े रास्ते !
पाप बताते , नरक रचते हैं
ये मन के बेवजह ताले !

सोने चांदी और लोहे ,
के ताले जिनमें बंद हैं ,
खुशियों की खिलखिलाहट
और रौशनी के झरने !

वह अनुभूति की दिव्यता ,
जिसे सर झुका के
हम मान लेते है
स्वीकारोक्ति से भर जाते हैं !

तालों के खुलने से ,
खुल जाती है नई दुनियां ,
सूरज के सामने आ जाते हैं
देखते हैं नई चीजें ,पुराने सरोकारों में !

अंकुरण से फल फूल तक ,
वसंत से पतझड़ तक
समझ में आता है जीवन ,
बहती हुई जीवन सरिता !

पल पल , हर पल
बदलता है जीवन जहाँ ॥
हमने क्यों लगा रखें हैं ,
अनगिनत ताले वहाँ ॥
----मनोज गुप्ता

Tuesday 10 January 2012

जो जागा...........................गुलाब कोठारी

गलतियों का
पुतला है
आदमी।
भोलेपन में,
प्रवाह में,
आवेश में,
नादानी में,
हो सकती हैं
गलतियां।
क्या जरू री है
हर गलती का
लाभ उठाता रहे
जमाना,
कोई तो मिले
जो रोक सके
हाथों को
गलती करते समय
कोई तो दिखाए रास्ता
जीवन की सच्चाई का।
जब हाथ उठता है
गलती करने को
मन छूट जाता है
पकड़ से
तब वहां
उस माहौल में
कौन मिलेगा मनीषी
खोजता हुआ
अपने ईश्वर को
और, जो जागा,
मनीषी हो जाएगा।
--------गुलाब कोठारी
gulabkothari.wordpress.com

Sunday 8 January 2012

बेगानों की बेगानी बातें..............सुनन्दा

फासले तुम जो बढ़ाने लगे,
हम खुद के करीब आने लगे.
एक पल न लगा छोड़ कर जानें में,
पास आने में तो जमाने लगे.
एक पल जिन्हें बिताने में उम्र लगी,
गुजर गए वो फसाने लगे.
हिचकी मौत की जो आने लगी,
फिर से जीने के ये बहाने लगे.
तोड़ते रहे दिल कदम-दर कदम,
मुझको वो दोस्त कुछ पुराने लगे.
मुद्दतों दिल में बसाया जिनको,
आज वो ही सबसे बेगाने लगे
------सुनन्दा

Saturday 7 January 2012

फ़ुज़ूल काम हमारे यहाँ नहीं होते !!....................................मयंक अवस्थी

अगर हवाओं के रुख, मेहरबाँ नहीं होते
तो बुझती आग के तेवर, जवाँ नहीं होते

दिलों पे बर्फ जमीं है, लबों पे सहरा है
कहीं खुलूस के झरने, रवाँ नहीं होते

हम इस ज़मीन को, अश्कों से सब्ज़ करते हैं
ये वो चमन है ,जहाँ बागबाँ नहीं होते

कहाँ नहीं हैं, हमारे भी ख़ैरख्वाह,मगर
जहाँ गुहार लगाओ वहाँ नहीं होते

वफा का ज़िक्र चलाया तो, हंस के बोले वो

फ़ुज़ूल काम हमारे यहाँ नहीं होते !! 
--------मयंक अवस्थी 
प्रस्तुतिकरणः सुरेश पसारी