तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Monday 13 February 2012

कोई बदलाव की सूरत नहीं थी ..............................सचिन अग्रवाल "तन्हा "


कोई बदलाव की सूरत नहीं थी
बुतों के पास भी फुर्सत नहीं थी ......

अब उनका हक़ है सारे आसमां पर

कभी जिनके सरों पर छत नहीं थी .............

वफ़ा ,चाहत, मुरव्वत सब थे मुझमे
बस इतनी बात थी दौलत नहीं थी ........

फ़क़त प्याले थे जितने क़ीमती थे

शराबों की कोई क़ीमत नहीं थी ..............

मैं अब तक खुद से बेशक़ ख़फ़ा हूँ

मुझे तुमसे कभी नफरत नहीं थी .......

गए हैं पार हम भी आसमां के

वंहा लेकिन कोई जन्नत नहीं थी .........

वंहा झुकना पड़ा फिर आसमां को

ज़मीं को उठने की आदत नहीं थी .............

घरों में जीनतें बिखरी पड़ी हैं

मकानों में कोई औरत नहीं थी ...........

-------सचिन अग्रवाल "तन्हा "

1 comment:

  1. यह गजल इतनी खूबसूरत लगी कि टिप्पणी करने से खुद को रोक नहीं सकी। पढ़वाने का शुक्रिया

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