हिस्सा है हिन्दी
हमारे अस्तित्व का ...
ये वो पुल है जो...
ले जाती है सुखों तक
पहुंचाती है हमें
संतुष्टि के शिखरो पर
जोड़ती है..हमें
हमारी जड़ों से
बताती है पता..
ज्ञान का..... जिसे
संजोया गया है
करोड़ों लोगों द्वारा
वर्षों से...और
ले जाती है हमें..
एक सार्थक
जीवन की ओर
कुल मिलाकर
आप भी सहमत होंगे
हिन्दी में हैं हम
और हिन्दी हममें है
मन की उपज
यदि प्रबुद्ध वर्ग की कथनी एवं करनी में अंतर नहीं होता ,तो हिन्दी निश्चित ही शिखर पर होती। हमारी मातृभाषा अपने ही घर में दासी न होती।
ReplyDeleteक्या एक संकल्प अपने घर में नहीं लिया जा सकता कि हम और हमारे बच्चे आपस में अंग्रेजियत के प्रतीक शब्द पापा- मम्मी, अंकल- आंटी और सर जी छोड़ दे।
नाम परिवर्तन तो सदैव संभव है न..
जब प्रश्न अपनी भाषा का हो , तो इतना भी त्याग नहीं...?
फिर हम कैसे साहित्यकार..!
मैंने तो निश्चय किया है कि जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक और मण्डलायुक्त आदि किसी भी वरिष्ठ अधिकारी को भविष्य में "सर या सर जी " न कहूँगा।
उनके लिये वार्तालाप के दौरान " भाई साहब " अथवा " मान्यवर " जैसे शब्द का प्रयोग करूँगा।
सादर..
सुन्दर सृजन। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteवाह अनुपम
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति दीदीजी। नमस्ते
ReplyDeleteअति उत्तम
ReplyDeleteवाह सहज सरल अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसार्थक सृजन।
हिन्दी में हैं हम
ReplyDeleteऔर हिन्दी हममें है....सत्य !
हिन्दी में हैं हम
ReplyDeleteऔर हिन्दी हममें है
हिन्दी में हैं हम
और हिन्दी हममें है
सत्य !
सार्थक सृजन।