Wednesday, 27 December 2017

ना जाने कितने मौसम बदलेंगे.....


ना जाने कितने मौसम बदलेंगे
ना जाने
कितने लोगों से
कितनी
मुलाकातें बची है?
न जाने कितने दिन
कितनी रातें बची हैं?
ना जाने कितना रोना
कितना सहना बचा है?
कब बंद हो जायेंगी आँखें
किस को पता है?

कितने फूल खिलेंगे?
कब उजड़ेगा बागीचा
किस को पता है?
ना जाने कितनी सौगातें
मिलेंगी?
बहलायेंगी या रुलायेंगी
किस को पता है?
जब तक जी रहा
क्यों फ़िक्र करता निरंतर
ना तो परवाह कर
ना तू सोच इतना
जब जो होना है हो
जाएगा
जो मिलना है मिल
जाएगा
तू तो हँसते जा गाते जा
निरंतर
जो भी मिले
उससे गले लग कर
मिल निरंतर...!!
-यशोदा
मन की उपज

Sunday, 17 December 2017

फिर अंकुरित हो जाती है

पत्ते झड़ते रहते हैं
शाखाएँ भी कभी
टूट जाती है
पर वृक्ष...
खड़ा रहता है
निर्विकार..निरन्तर
उस पर 
नई शाखाएँ 
आ जाती है
नवपल्लव भी
दिखाई पड़ने लगती है
कुछ जिद्दी लताएँ
साथ ही नही छोड़ती 
वृक्ष का..
रहती है चिपकी
सूखती है और फिर
अंकुरित हो जाती है
-यशोदा
मन की उपज

Thursday, 14 December 2017

एक और शाम....



एक और शाम
उतर आयी आँखों में
भर गयी नम किरणें
खुला यादों का पिटारा...
भीग गयी पलकें
फैलकर उदासी 
धुंधला गयी चाँद को 
झोंका सर्द हवा का
लिपटकर तन से
छू गया अनछुआ मन
ठंडी हथेलियों को चूम
चाँदनी महक गयी 
ओढ़ यादों की गरमाहट
लब मुस्कुराये
जैसे हो स्नेहिल स्पर्श तुम्हारा
- यशोदा
मन की उपज

Thursday, 7 December 2017

बयां करेगी किस्से


ऐ कविता
एक तलब सी 
बन गई हो 
इस जिंदगी में तुम......
जो बिन तुम्हारे 
अधूरी सी 
हो चली है.......
हर सपनो में तुम 
और 
तुम में ही 
हर सपना है मेरा.........
जानता हूँ 
दिल में रखे 
ये मोहब्बत के पन्ने 
एक रोज
उड़ जाएंगे हवा में
काफूर बन के…....
फिर भी 
कम नहीं होती 
ये तलब 
तेरे प्यार की......
सोचता हूँ 
ये क्या कम है 
कि जिंदगी 
खामोश होकर भी 
बयां करेगी किस्से 
-यशोदा
मन की उपज

Wednesday, 6 December 2017

कहाँ से आएगी माँ....


सोनोग्राफी क्लिनिक के अन्दर
एक महिला ने
थरथराते होठों से
एकान्त में..कहा
घर वाले मेरा ..
करवाना चाहते हैं
परीक्षण
जानना चाहते वे
लड़का है या फिर लड़की
अन्तरात्मा मेरी
धिक्कारती है मुझको
मैडम आप ही 
कोई दीजिए सुझाव
कह दीजिए आप
अगर 
आपने यह परीक्षण करवाया
तो प्रसव मैं नही करवा सकती..
हाँ,"मैडम ने कहा"
वैसे भी गलत भी 
हो जाते हैं कई टेस्ट 
सौ प्रतिशत 
कोई नहीं बता सकता
फिर मैडम ने कहा
क्यों नही चाहती आप??
क्या नहीं चाहिए बेटा??
लड़की तो हैं न एक फिर
ये खतरा क्यूँ...
वो महिला बोल पड़ी....
खतरा...
हाँ लड़की जन्मना 
खतरा ही तो है
पर,मैडम जी जब
एक माँ ऐसा सोचने लगे
तो फिर माँ कौन बनेगा
ये सृष्टि कैसे चलेगी???
-यशोदा..
मन की उपज

Tuesday, 5 December 2017

उड़ चला है वक्त.....


वक्त है
या नहीं है वक्त
वक्त का क्या
बीतता जाता है
कोसना वक्त को
मूर्खता है निरी
अनमोल देन है ये
वक्त.....दाता की
नेमत है ये वक्त
वक्त का...
हर लम्हा अकूत मूल्य
रखता है... जुड़ें रहें
इस वक्त से..आप
थाम नहीं सकते...
वक्त को...आपको
चलना ही होगा साथ
वक्त के....कोशिश
कीजिए मुस्कुराने की
वक्त के साथ..
हमें कोई... 
इख़्तियार नहीं
वक्त की चाल पर 
फिर भी हर पल
दावा पेश करते हैं
वक्त के अपना होने का
- यशोदा
मन की उपज



Wednesday, 22 November 2017

एक स्वप्न नया...


राहें नई..
आयाम नया
हुई विधा नयी
पर कलम वही...

अनुभव नए
शब्द नए
दर्द भी नया
पर कलम वही...


मनन नया
चिन्तन नया
भाव नये
पर कलम वही

दवात नया
कागज नयी
सियाही नयी
पर कलम वही

डायरी नयी
कव्हर नया
पन्ना कोरा
पर कलम वही

एक स्वप्न नया
एक कवि नया
एक कविता नयी
पर कलम वही...

-यशोदा
मन की उपज


Thursday, 16 November 2017

रूठे हैं अपने ही.....



रूठे हैं अपने ही
तो हुआ क्या
साथ ही तो छूटा
तो हुआ क्या
एक तिनका ही टूटा 
नीड़ का ...बस
एक पुल ही टूटा 
उम्मीदों का
हुई राहें
बेगानी.
उलझकर काँटों से
बनी दर्द की 
नयी एक कहानी
कोई ज़ख़्म पुराना
हुआ ताजा
राह में ज़िन्दगी के
पर,तुम न हो ख़फ़ा
खुद से ज़रा भी
है न रास्ता...
देखो टटोलकर
बटोरकर
हौसला
देखो पलट कर
वो साया है
तुम्हारा ही..
तलाशो उसे
अपने भीतर
भूलकर अंधेरे को
जला लो फिर से
एक बाती 
वजूद की 
शिनाख्त के लिए
अंतर्मन के कोने में
-यशोदा
मन की उपज


Saturday, 11 November 2017

समाई हुई हैं इसी जिन्दगी में



क्या है...
ये कविता..
क्यों लिखते हैं....
झांकिए भीतर
अपने जिन्दगी के
नजर आएगी  एक
प्यारी सी कविता

सुनिए ज़रा
ध्यान से...
क्या गा रही है 

ये कविता....
देखिए इस नन्हें बालक
की मुस्कुराहट को
नज़र आएगी एक
प्यारी सी
मुस्काती कविता....

दिखने वाली
सभी कविताएँ

जिनमें..
हर्ष है और
विषाद भी है

सर्जक है
विध्वंसक भी है

इसमे संयोग है...
और वियोग भी है

है पाप भी
और प्रेम का
प्रदर्शन का
संगम है

समाई हुई हैं
इसी जिन्दगी में

ये प्यारी सी 
कविता
-यशोदा
मन की उपज
 


Thursday, 9 November 2017

पन्ना एक पलटने के बाद....


भाषा और
ज्ञान के बाद भी
बाकी है बहुत कुछ
ये भाषाएँ
ये ज्ञान की बातें
रहने दीजिए..सीमित
समझता है कौन
आज के इस युग में

इन बातों को...
युग की बात को
युग तक ही रखें...

आज-कल..
इस तरह की भाषा
और ज्ञान भी इसी
तरह का चाहिए..
मसलन..

मौसम मन का
हो जाता है अजीब...
रहता है हरदम...
आवाज के बगैर..
रहता है दर्द 
रिसता है मन का
बुझती सी है
खुशियाँ..
आँगन की...
पन्ना एक पलटने के बाद
आ जाती वापस...
सुगंध एक मादक सी
काफूर हो जाता है
दर्द मन का..

खिल जाते हैं फूल
बिखरता है मकरंद
-यशोदा
मन की उपज





Tuesday, 7 November 2017

भूल-भुलैय्या......


भाषा में 
होता है ज्ञान
और...
अपना ज्ञान भी 

होता है भाषा का
छोटे शब्दों में कहिए तो
भाषा यानि
ज्ञान भी
न मौन है
भाषा
और न ही
ज्ञान मौन है
एक पहचान है
भाषा...
जो अपने आप में
पूर्णता तक ..
पहूँचती है

...
पहुँच है तो
एक मार्ग के साथ
और एक ही भाषा
होती ही नही मार्ग की

मौन होते हैं कई
बोलिया भी है कई

और अंततः
यही होता है
ज्ञान...

-यशोदा
मन की उपज

Monday, 6 November 2017

ऐसे ही अज्ञानी सर्वत्र हैं....


ज्ञान... 
किसी घराने की 
अनुशंसा नहीं कि
किसी ने कहा और 
कोई अमर हो गया
कालजयी बन गया
इतना भी नहीं तो 
वर्ष का सर्वश्रेष्ठ हो गया....
बाज़ार इसी तरह 
मूर्खों की मतिभ्रष्ट करता है....
बाज़ार को जो 
पीकदान न समझे 
वह ज्ञानी नहीं 
और ऐसे ही 
अज्ञानी सर्वत्र हैं....

बहरहाल.....
ज्ञान और भाषा 
दोनों भले ही 
किसी स्तर पर 
मौन हों, 
पर तब 
मौन ही भाषा 
और वह
ज्ञान की रंगत का 
प्रतिनिधित्व करता है ।
-यशोदा
मन की उपज

Sunday, 5 November 2017

ज्ञान की भाषा....मन की उपज



ज्ञान की....भाषा
ज्ञान होता है
और इसे पाएं 
कैसे...
एक प्रश्न है जटिल
....
कहा जाता है
भाषा से होती है
पैदाइश ज्ञान की
ये भी कहते हैं 
भाषा का अपना 
ज्ञान भी होता है ।
छोटे शब्दों में 
भाषा यानी ज्ञान भी ।
....
भाषा न तो 
मौन है
न ही मौन है ज्ञान
एक पहचान है
भाषा..जो
पहुंच रखती है
अपने साथ
पूर्ण रूप से
हमारे मन तक
....
भाषा पहुंच रखती है
एक मार्ग के साथ
और उस मार्ग की
भाषा एक नहीं होती
.........
भाषाएँ रहती है कई
मौन भी
बोलियाँ भी
और..
माने सही तो
इसे ही कहते है ज्ञान
-मन की उपज

Saturday, 4 November 2017

सरकारी रचनाकार...मन की उपज


सरकारी रचनाकार
सरकारी होकर
जीता कम है
पर ...
मरता अधिक है

सरकारी होना
रचनाकार का
जीत नहीं है 
वरन् करारी हार है
सरकार की

वजह.. यही
सरकारी रचनाकार ..
असंतुष्ट हो....तो
नज़र आए हैं
ज़मीदोज़ करते 

सरकार को 

वजह..

माया..
सत्ता है 
सरकार की
और यही..
माया....पगला
देती है रचनाकार को
और..पगला रचनाकार
रचता कब है ! 

माया की सत्ता पर... 
जल..
बिखेर देता है ।
-मन की उपज




Thursday, 2 November 2017

सुख या फिर ख़ुशी......मन की उपज

चुनते हैं हम
सुख या फिर
ख़ुशी..
रह कर भी
शिविर में ..
प्रताड़नाओं के
हम मन के
मौसम को... 
बासन्ती बना सकते हैं
कोई इन्सान..
कोई वस्तु 
या फिर 
प्रक्रिया हो 
कोई भी....
इतनी बलशाली नहीं
कि हमारे मन पर
कब्ज़ा कर सके
वो भी बगैर हमारी 
मर्जी....और हम
मन से..करते हैं 
कोशिश...और
तलाश लेतें हैं
खुशियाँ...
-मन की उपज
#हिन्दी दिवस