सीमित हूँ
बहुत.....मैं
शब्दों में....
अपने ही
लेकिन, हूँ
विस्तृत बहुत
अर्थों में..... मेरे
अपने ही...
ना होती स्त्री
मैं तो...कहो
कहाँ होता...अस्तित्व
तुम्हारा.........भी
मेरे होने से.... ही
तुम पुरुष हो....वरना
व्यर्थ है...
तुम्हारा...यह
व्यक्तित्व....
-मन की उपज
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १६फरवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-02-2017) को "दिवस बढ़े हैं शीत घटा है" (चर्चा अंक-2882) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
स्त्री जीवन का सृजन होती है
ReplyDeleteसच्ची रचना
सादर
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभव्यक्ति,यशोदा जी।
ReplyDeleteवाह!!बहुत सुंदर ...।
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteसीमित हूँ शब्दों में...
ReplyDeleteविस्तृत हूँ अर्थों में...
वाह!!!
लाजवाब...
सुंदर ! सीमित हूँ शब्दों में !
ReplyDeleteवाह..
ReplyDeleteबहुत खूब
सीमित हूँ शब्दों में...
विस्तृत हूँ अर्थों में.. 👏 👏 👏 👏
Bahut sundar abhivyakti.
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/02/57.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह!! बहुत सुंदर !!
ReplyDeleteमेरे होने से.... ही
ReplyDeleteतुम पुरुष हो....वरना
व्यर्थ है...
तुम्हारा...यह
व्यक्तित्व...-----
कितनी सार्थक बात है -- पर पुरुष लोग ये बात मानते ही नही | पर सच यही है दोनों एक दुसरे के बिना पूरे कहाँ हैं ? फिर भी नारी जितना विस्तार और किसी में कहाँ ? सादर ------