कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो धन वो चोरी-छुपे ले जा रहें हैं देश से बाहर
या फिर अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में
उससे संवर सकती है उनके के हज़ारों भाइयों की ज़िंदगियाँ !
और खुश हो सकते हैं वो पेट भर अन्न या तन पर कपड़े पाकर
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन के पीछे कर रहें वो इत्ते सारे कुकर्म
अगर ना करें वो तो बदल सकती है देश की तकदीर !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो सुन्दर व्यवस्था वो अपने लिए चाहते हैं और बना रहे हैं
उसी के कारण हो रही है उसी व्यवस्था में एक अराजक सडांध !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन को सही तरीके से बाँट देने पर
बेहतर तरीके से हो सकता है सामाजिक समन्वय !
उसे सिर्फ अपने लिए बचा लेने के कारण ही
बढ़ रहा है असंतुलन और वर्गों में एक अंतहीन दुश्मनी !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर रिश्तों पर दे दी जाती है धन को ज्यादा तरजीह
तो बाहरी चकाचौंध तो बेशक आ सकती है जीवन में
मगर रिश्तों का खोखलापन जीवन को कर देता है उतना ही निरर्थक !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर धन के पीछे ना भागकर उसे परमार्थ के काम में लगा दो तो
दुनिया बन सकती है सचमुच अदभुत रूप से संपन्न और सुन्दर !
जिसकी कि कामना करते रहते हैं हम सब हमेशा ही सदा से !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि अगर सच में
बेतहाशा धन कमाने वाले अगर अपना आचरण आईने में देख-भर लें
तो शायद समझ आ जाए उन्हें वह सब कुछ
जिसे समझने के लिए वो जाते हैं तरह-तरह के साधू-संतों के पास अक्सर !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस व्यवस्था को कमा-खाकर भी वो कोसते हैं उसकी कमियों के लिए
उस घुन को लगाने वाले सबसे बड़े जिम्मेवार दरअसल वो ही तो हैं !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं
क्यूंकि ऐसा करने वाले इतने थेथर-अहंकारी-धूर्त और मक्कार बन चुके हैं
कि स्कूल-कॉलेज में पढ़-कर साधन-संपन्न बनाने के बाद भी
उन्हें नहीं पता शब्दकोष के भीतर के अच्छे-अच्छे शब्दों का अर्थ
क्योंकि दरअसल इन शब्दों के अर्थों को भूल-भुला कर ही तो
वो बने जा रहे हैं इतने ठसकवान और ऐब-पूर्ण
कि उन्हें अपने कारखानों या अपनी गाडी के नीचे आकर
मरने वालों का चेहरा तक नहीं दिखाई देता !
और इस तरह जहां हज़ारों लोग भूखे मर जा रहे हैं
वो खाए जा रहे हैं एक पूरे-का-पूरा देश
और हज़म कर ली है उन्होंने एक समूची-की-समूची व्यवस्था.....!!
--------------.राजीव थेपड़ा "भूतनाथ "