तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Saturday, 31 December 2011

आइए श्री बीस बारह आइए...........................अशोक चक्रधर


आइए श्री बीस बारह
आ रहे हैं आइए!

किंतु बारह बाट की


कोई तुला मत लाइए!!

जा रहे श्री बीस ग्यारह,

जा रहे हैं जाइए,

जो हुई हैं भूल

उनको पुन: मत दोहराइए।

आइए कुछ इस तरह

इस देश के जनतंत्र में

जन-मन पनपना

भव्यता का दिव्य सपना

और अपनापन

तनिक बाधित न हो,

संसद भवन के सौध में

जो रखा है

अति जतन से

वह कॉन्स्टीट्यूशन हमारा

सुधर तो जाए मगर

हत्यार्थ सन्धानित न हो।

नालियां जो

इस प्रणाली में बनी हैं,

रुंध गई हैं

ठोस कीचड़ से सनी हैं।

इस सदी ने इस बरस

कुछ शीश

ज्यादा ही धुना है,

वर्ष बारहवां बदलता

रूप घूरे का सुना है।

आइए श्री बीस बारह

आ रहे हैं आइए!

बारामासी खटन गया सी

खट जलवा दिखलाइए!!
--------अशोक चक्रधर

Wednesday, 28 December 2011

अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है ..................कातिल सैफ़ी

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है

जीत ले जाये कोई मुझको नसीबों वाला
ज़िन्दगी ने मुझे दाँव पे लगा रखा है

जाने कब आये कोई दिल में झाँकने वाला
इस लिये मैंने ग़िरेबाँ को खुला रखा है

इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है

दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील,
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है 

.......कातिल सैफ़ी

Wednesday, 21 December 2011

चूड़ियों की और खन-खन बढ़ गई...........'अना' क़ासमी

उसको नम्बर देके मेरी और उलझन बढ़ गई
फोन की घंटी बजी और दिल की धड़कन बढ़ गई

इस तरफ़ भी शायरी में कुछ वज़न-सा आ गया
उस तरफ़ भी चूड़ियों की और खन-खन बढ़ गई

हम ग़रीबों के घरों की वुसअतें मत पूछिए
गिर गई दीवार जितनी उतनी आँगन बढ़ गई

मशवरा औरों से लेना इश्क़ में मंहगा पड़ा
चाहतें क्या ख़ाक बढ़तीं और अनबन बढ़ गई

आप तो नाज़ुक इशारे करके बस चलते बने
दिल के शोलों पर इधर तो और छन-छन बढ़ गई
मुनीर भाई

---'अना' क़ासमी
प्रस्तुति करणः मुनीर अहमद मोमिन


Friday, 16 December 2011

ज्योति दुनिया की सबसे छोटी महिला

ज्योति दुनिया की सबसे छोटी महिला
नागपुर। नागपुर में अपना 18वां जन्मदिन मना रहीं ज्योति आमगे ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें उनके जन्मदिन पर ऎसा तोहफा मिलेगा, जो दुनियाभर में उनके नाम को नई पहचान दे देगा।

अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड संस्था ने ज्योति को दुनिया की सबसे कम कद की महिला होने का खिताब दिया। इससे पहले यह खिताब अमरीका की दो फीट तीन इंच की ब्रिगेटे जॉर्डन के नाम था। मात्र दो फीट (61.95 सेमी) के कद की ज्योति अपने गृहनगर में पहले से ही प्रसिद्ध हस्ती हैं और इस खिताब को पाने के बाद तो उनको अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिल गई है।

छोटी आंखों में बॉलीवुड ड्रीम्स
जन्म के समय ज्योति तकरीबन 4.77 किलोग्राम की थीं, लेकिन अब उनका वजन 5.500 किलोग्राम है। वे भू्रणस्थितशोथ यानि बौनेपन का शिकार हैं।

भले ज्योति का कद छोटा हो, लेकिन उनके सपने बहुत ही बड़े हैं। ज्योति बॉलीवुड में कॅरियर बनाना चाहती हैं। वे अगले साल दो फिल्मों में काम करने जा रही हैं। ज्योति के अनुसार, उनको दूसरों को खुश करना अच्छा लगता है।

आम लड़कियों जैसी हूं
ज्योति स्कूल में आम बच्चों के साथ पढ़ती हैं। उनके लिए स्कूल में छोटी टेबल और कुर्सी खासतौर से बनवाई गई है। ज्योति का कहना है कि उनके साथ आम लड़कियों की तरह व्यवहार किया जाए। उन्होंने कहा कि मैं काफी सालों से गिनीज वल्र्ड रिकॉर्ड के सपना देख रही थी, जो अब जाकर पूरा हुआ है।
 

Tuesday, 13 December 2011

सिमट गई सूरज के रिश्तेदारों तक ही धूप.....डॉ. जगदीश व्योम


सिमट गई
सूरज के रिश्तेदारों तक ही धूप
न जाने क्या होगा
घर में लगे उकसने काँटे
कौन किसी का क्रंदन बाँटे
अंधियारा है गली गली
गुमनाम हो गई धूप
न जाने क्या होगा
काल चक्र रट रहा ककहरा
गूँगा वाचक, श्रोता बहरा
तौल रहे तुम, बैठ-
तराजू से दुपहर की धूप
न जाने क्या होगा
कंपित सागर डरी दिशाएँ
भटकी भटकी सी प्रतिभाएँ
चली ओढ़ कर अंधकार की
अजब ओढ़नी धूप,
न जाने क्या होगा
घर हैं अपने चील घोंसले
घायल गीत जनम कैसे लें
जीवन की अभिशप्त प्यास
भड़का कर चल दी धूप
न जाने क्या होगा
सहमी सहमी नदी धार है
आँसू टपकाती बहार है
भटके को पथ दिखलाकर, खुद-
भटक गई है धूप
न जाने क्या होगा
स्मृतिमय हर रोम रोम है
एक उपेक्षित शेष व्योम है
क्षितिज अँगुलियों में फँस कर फिर
फिसल गई है धूप
न जाने क्या होगा
बलिदानी रोते हैं जब जब
देख देख अरमानों के शव
मरघट की वादियाँ
खोजने लगीं
सुबह की धूप
न जाने क्या होगा 
--डॉ. जगदीश व्योम

Thursday, 8 December 2011

हम ला रहे हैं चतुर लोकपाल ..........दिव्येन्द्र कुमार

कराने मुँह बंद तुम्हारा,
हम ला रहे हैं टोकपाल,
उड़ाने देश का मखौल ,
हम ला रहे हैं ज़ोकपाल,
बहुत हो गया शोर शराबा,
हम ला रहे हैं रोकपाल,
ईमानदारी पर मारने तमाचा,
हम ला रहे हैं ठोकपाल ,
बिगाड़ने सच का चेहरा ,
हम ला रहे हैं नोकपाल,
मनाने लोकतंत्र का मातम ,
हम ला रहे हैं शोकपाल,
बुद्धू ठहरे तुम सब के सब,
हम ला रहे हैं चतुर लोकपाल
----दिव्येन्द्र कुमार

Friday, 2 December 2011

हिन्दी का गला घुट रहा है!....................... महावीर शर्मा


अंग्रेज़ी-पुच्छलतारे नुमा व्यक्ति जब बातचीत में हिन्दी के शब्दों के अंत में जानबूझ कर व्यर्थ में ही 'आ' की पूंछ लगा कर उसका सौंदर्य नष्ट कर देते हैं, जब जी टीवी द्वारा इंग्लैंड में आयोजित एक सजीव कार्यक्रम में जहां लगभग 100 हिन्दी-भाषी वाद-विवाद में भाग ले रहे हों और एक हिन्दू भारतीय प्रौढ़ सज्जन जब गर्व से सिर उठा कर 'हवन कुंड' को 'हवना कुंडा' कह रहा हो तो हिन्दी भाषा कराहने लगती है, उसका गला घुटने लगता है।

यह ठीक है कि अधिकांश कार्यवाही अंग्रेजी में ही चल रही थी किंतु अंग्रेजी में बोलने का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें हिन्दी शब्दों को कुरूप बना देने का अधिकार मिल गया हो। वे यह भी नहीं सोचते कि इस प्रकार विकृत उच्चारण से शब्दों के अर्थ और भाव तक बदल जाते हैं। 'कुंड' और 'कुंडा' दोनों शब्द भिन्न संज्ञा के द्योतक हैं।

श्रीमान, सुना है यहां एक संस्था या केंद्र है जहां योग की शिक्षा दी जाती है, आप बताने का कष्ट करेंगे कि कहां है?' 'आपका मतलब है योगा-सेंटर?' महाशय ने तपाक से अंग्रेजी-कूप में से मंडूक की तरह उचक कर 'योग' शब्द का अंग्रेजीकरण कर 'योगा' बना डाला। यह बात थी दिल्ली के करौल बाग क्षेत्र की।

यह मैं मानता हूं कि रोमन लिपि में अहिन्दी भाषियों के हिन्दी शब्दों के उच्चारण में त्रुटियां आना स्वाभाविक है, किन्तु हिन्दी-भाषी लोगों का हमारी राष्ट्र-भाषा के प्रति कर्तव्य है कि जानबूझ कर भाषा का मुख मलिन ना हो। यदि हम उन शब्दों को अंग्रेज लोगों के सामने उन्हीं का अनुसरण ना करके शब्दों का शुद्ध उच्चारण करें तो वे लोग स्वतः ही ठीक उच्चारण करके आपका धन्यवाद भी करेंगे। यह मेरा अपना निजी अनुभव है। कुछ निजी अनुभव यहां देने असंगत नहीं होंगे और आप स्वयं निर्णय कीजिए कि हम हिन्दी शब्दों के अंग्रेजीकरण उच्चारण में क्यों गर्वित होते हैं।

मैं इंग्लैंड के एक छोटे से नगर में एक स्कूल में अध्यापन-कार्य करता था। उसी स्कूल में सांयकाल के समय बड़ी आयु के लोगों के लिए भी कुछ विषयों की सुविधा थी। अन्य विषयों के साथ योगाभ्यास की कक्षा भी चलती थीं जो हम भारतीयों के लिये बड़े गर्व की बात थी। यद्यपि मेरा उस विभाग से संबंध नहीं था पर उसके प्रिंसिपल मुझे अच्छी तरह जानते थे।

योग की कक्षाएं एक भारतीय शिक्षक लेते थे जिन्होंने हिन्दी-भाषी उत्तर प्रदेश में ही शिक्षा प्राप्त की थी, हठयोग का बहुत अच्छा ज्ञान था। मुझे भी हठयोग में रुचि थी, इसीलिए उनसे अच्छी जान-पहचान हो गई थी। एक बार उन्हें किसी कारण एक सप्ताह के लिए कहीं जाना पड़ा तो प्रिंसिपल ने पूछा कि मैं यदि एक सप्ताह के लिए योग की कक्षा ले सकूं। पांच दिन के लिए दो घंटे प्रतिदिन की बात थी। मैंने स्वीकार कर कार्य आरम्भ कर दिया। 20 मिली जुली आयु के अंग्रेज पुरुष और स्त्रियां थीं।

परिचय देने के पश्चात एक प्रौढ़ महिला ने पूछा, ' आज आप कौन सा 'असाना' सिखायेंगे?' मैं मुस्कुराया और बताया कि इसका सही उच्चारण असाना नहीं, 'आसन' कहें तो अच्छा लगेगा।' उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, कहने लगीं, 'मिस्टर आ. ने तो ऐसा कभी भी नहीं कहा। वे तो सदैव 'असाना' ही कहा करते थे।'

मैंने यह कहकर बात समाप्त कर दी कि हो सकता है मि. आ. ने आप लोगों की सुगमता के लिए ऐसा कह दिया होगा। महिला ने शब्द को सुधारने के लिए कई बार धन्यवाद किया। मूल कार्य के साथ जितने भी आसन,मुद्राएं और क्रियाएं उन्होंने श्री आ. के साथ सीखी थीं, उनके सही उच्चारण भी सुधारता गया। प्रसन्नता की बात यह थी कि वे लोग हिन्दी के उच्चारण बिना किसी कठिनाई के बोल सकते थे। 'त' और 'द' बोलने में उन्हें आपत्ति अवश्य थी जिसको पचाने में कोई आपत्ति नहीं थी। जब श्री आ. वापस आकर अपने विद्यार्थियों से मिले तो अगले दिन मुझे मिलने आए और हंसते हुए कहने लगे,'यह कार्य तो मुझे आरम्भ में ही कर देना चाहिए था। इसके लिए धन्यवाद!'

श्री अर्जुन वर्मा हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता हैं। गीता तो ऐसा लगता है जैसे सारे 18 अध्याय कण्ठस्थ हों। लंदन की एक हिन्दू-संस्था के एक विशेष कार्यक्रम के अवसर पर 'श्रीमद्भगवद्गीता' पर भाषण दे रहे थे। भारतीय, अंग्रेज और यहां तक कि ईरान के एक मुस्लिम दंपत्ति भी श्रोताओं में उपस्थित थे। स्वाभाविक है, अंग्रेज़ी भाषा में ही बोलना उपयुक्त था।
'माई नेम इज़ अर्जुन वर्मा.....'. गीता के विषयों की चर्चा करते हुए सारे पात्र अर्जुना, भीमा, नकुला, कृश्ना, दुर्योधना, भीष्मा, सहदेवा आदि बन गए। विडम्बना यह है कि वे स्वयं अर्जुन ही रहे और गीता के अर्जुन 'अर्जुना' बन गए। बाद में जब भोजन के समय अकेले में मैंने इस बात पर संक्षिप्त रूप से उनका ध्यान आकर्षित किया तो कहने लगे 'ये लोग गीता अंग्रेज़ी में पढ़ते हैं तो उनके साथ ऐसा ही बोलना पड़ता है। 'मैंने कहा,'वर्मा जी आप तो संस्कृत और हिन्दी में ही पढ़ते हैं।' वर्मा जी ने हंसते हुए यह कहकर बात समाप्त कर दी,' मैं आपकी बात पूर्णतयः समझ रहा हूं, मैं आपकी बात को ध्यान में रखूंगा।'

अपने एक मित्र का यह उदाहरण अवश्य देना चाहूंगा। बात, फिर वही लंदन की है। आप जानते ही हैं कि 'हरे कृष्ण' मंदिर विश्व के कोने कोने में मिलेंगे जिनका सारा कार्य-भार विभिन्न देशों के कृष्ण-भक्तों ने सम्भाला हुआ है। गौर वर्ण के लोग भी अपनी पूरी सामर्थ्यानुसार अपना योग दे रहे हैं। मेरे मित्र (नाम आगे चलकर पता लग जाएगा) इस मंदिर में प्रवचन सुनकर आए थे। मैंने पूछा, ' भई आज किस विषय पर चर्चा हो रही थी। हमें भी इस ज्ञान-गंगा में यहीं पर गोता लगवा दो।' कहने लगे,'आज सूटा के विषय में ,...' मैंने बीच में ही रोक कर पूछा,'भई, यह सूटा कौन है?' कहने लगे,'अरे वही, तुम तो ऐसे पूछ रहे हो जैसे जानते ही नहीं।

दिल्ली में मेरी माता जी जब हर माह श्री सत्यनारायण की कथा करवातीं थी, तुम हमेशा आकर सुनते थे। कथा के पहले ही अध्याय में सूटा ही तो...' मैंने फिर रोक कर उनकी बात टोक दी, 'अच्छा, तुम श्री सूत जी की बात कर रहे हो!' फिर अपनी बात सम्भालते हुए कहने लगे, 'यार, ये अंग्रेज़ लोग उन्हें सूटा ही कहते हैं।' मैंने फिर कहा,' देखो, तुम्हारा नाम 'अरुण' है, यदि कोई तुम्हारे नाम में 'आ' लगा कर 'अरुणा' कहे तो यह पसंद नहीं करोगे कि कोई किसी अन्य व्यक्ति के सामने तुम्हारे नाम को इस प्रकार बिगाड़ा जाए, तुम्हें 'नर' से 'नारी' बना दे। तुम उसी समय अपने नाम का सही उच्चारण करके सुधार देंगे।' यह तो मैं नहीं कह सकता कि अरुण को मेरी बात अच्छी लगी या बुरी किंतु वह चुप ही रहे।

मैंने कहीं भी रोमन अंग्रेजी लिपि में या अंग्रेजी लेख आदि में मुस्लिम पैगम्बर और पीर आदि के नामों के विकृत रूप नहीं देखे। कहीं भी हज़रत मुहम्मद की जगह 'हज़रता मुहम्मदा' या ‘रसूल’ की जगह ‘रसूला’नहीं देखा गया। मुस्लिम व्यक्ति की तो बात ही नहीं, किसी पाश्चात्य गौर वर्ण के व्यक्ति तक को ‘मुहम्मदा’ या ‘रसूला’ बोलते नहीं सुना।

कारण यह है कि कोई उनके पीर, पैगम्बर के नामों को विकृत करके मुंह खोलने वाले का मुंह टेढ़ा-मेढ़ा होने से पहले ही सीधा कर देते हैं। कभी मैं सोचता हूं, ऐसा तो नहीं कि एक दीर्घ काल तक गुलामी सह सह कर हमारे मस्तिष्क को हीनता के भाव ने यहां तक जकड़ लिया है कि कभी यदि वेदों पर चर्चा होती है तो 'मैक्समुलर' के ऋग्वेद के अनुवाद के उदाहरण देने में ही अपनी शान समझते हैं।

फिल्मी कलाकार, निर्माता, निर्देशक, नेता आदि यहां तक कि जब वे भारतीयों के लिए भी किसी वार्ता में दिखाई देते हैं, तो हिन्दी में बोलना अपनी शान में धब्बा समझते हैं। ऐसा लगता है कि उर्दू या हिन्दी तो उनके लिए किसी सुदूर अनभिज्ञ देश की भाषा है। यह देखा जा रहा है कि हर क्षेत्र में व्यक्ति जैसे जैसे अपने कार्य में सफलता प्राप्त करके ख्याति के शिखर के समीप आ जाता है, उसे अपनी मां को मां कहने में लज्जा आने लगती है।

भारत में बी.बी.सी. संवाददाता पद्म भूषण सम्मानित सर मार्क टली एक वरिष्ट पत्रकार हैं। उन्हें उर्दू और हिन्दी का अच्छा ज्ञान है। भारतीयों का हिन्दी भाषा के प्रति उदासीनता का व्यवहार देख कर उन्होंने कहा था,'... जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान! क्योंकि मुझे यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के 'भारतीय संस्कृति' जिंदा नहीं रह सकती। दिल्ली में जहां रहता हूं, उसके आसपास अंग्रेजी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकानें हैं, हिन्दी की एक भी नहीं।

हकीकत तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिन्दी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी।' लज्जा आती है कि एक विदेशी के मुख से ऐसी बात सुनकर भी ख्याति के शिखर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए सफलकारों के कान में जूं भी नहीं रेंगती। लोग कहते हैं कि हमारे नेता दूसरे देशों में भाषण देते हुए अंग्रेजी का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि वहां के लोग हिन्दी नहीं जानते।

मैं यही कहूंगा कि रूस के व्लाडिमिर पूतिन, फ्रांस के निकोलस सरकोजी, चीन के ह्यू जिन्ताओ और जर्मनी के होर्स्ट कोलर आदि कितने ही देशों के नेता जब भी दूसरे देशों में जाते हैं तो गर्व से भाषांतरकार को मध्य रख अपनी ही भाषा में बातचीत करते हैं। ऐसा नहीं है कि ये लोग अंग्रेजी से अनभिज्ञ हैं किंतु उनकी अपनी भाषा का भी अस्तित्व है।
---महावीर शर्मा

Tuesday, 29 November 2011

अब फलक पर कोई तारा भी नहीं.........................ज़नाब साबिर इंदौरी

हिज्र की सब का सहारा भी नहीं
अब फलक पर कोई तारा भी नहीं

बस तेरी याद ही काफी है मुझे
और कुछ दिल को गवारा भी नहीं

जिसको देखूँ तो मैं देखा ही करूँ
ऐसा अब कोई नजारा भी नहीं

डूबने वाला अजब था कि मुझे
डूबते वक्त पुकारा भी नहीं

कश्ती ए इश्क वहाँ है मेरी
दूर तक कोई किनारा भी नहीं

दो घड़ी उसने मेरे पास आकर
बारे गम सर से उतारा भी नहीं

कुछ तो है बात कि उसने साबिर
आज जुल्फों को सँवारा भी नहीं।...प्रस्तोता....दीपक असीम
(ये ज़नाब साबिर इंदौरी साहब की उन आखिरी ग़ज़लों में से एक है, 
जिसे उन्होंने कहीं नहीं पढ़ा, किसी को नहीं सुनाया।)

Sunday, 27 November 2011

नारी शक्ति................चरणलाल

नारी चाहे तो आकाश धरा पर लादे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे
नारी ने विपदा झेली है
नारी शोलों से खेली है
नारी अंगारों पर चलकर
अंगारों की ताप मिटा दे
नारी चाहे तो पत्थर को पानी कर दे
और पानी में आग लगादे
नारी चाहे तो आकाश धरा पर लादे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे
नारी नर की निर्माता है
नारी देवों की माता है
नारी नर को शक्ति देती
नारी से नर सुख पाता है
नारी जो चाहे सो करदे
गागर में सागर को भर दे
तूफानों से टक्कर लेले
मरुभूमि में पुष्प खिला दे
नारी चाहे तो आकाश धरा पर लादे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे
यूं तो नारी अबला बनकर
पत्थर का भी दिल हर लेती
मानवता की रक्षा हेतु
कभी भयंकर नागिन बनकर
बड़े विषधरों को डस लेती
और पुरुष जब टेढा चलकर
अपने घर को छत्ती पहुंचाए
इस संकट में नारी बुद्धि
नर के पथ को सीधा कर दे
नारी चाहे तो आकाश धरा पर ला दे
नारी चाहे तो धरती को स्वर्ग बना दे .

"चरण"
गुरुवार, जून- 23, 2011

नीर कब तक यूँ बहाओगे .......................... मुकेश ठन्ना

नीर कब तक यूँ बहाओगे ,,

कब तलक सबको रुलाओगे ,,

छोड़ दो दुनिया के ये झूठे रवाज ,,

खुद को यूँ कब तक जलाओगे ,,

....सत्य से अब तुम यूँ लड़ना छोड़ दो ,,

झूठ का अब आसरा भी छोड़ दो ,,

उठ खड़े हो जाओ अब तुम इस तरह ,,

की जिंदगी को इक दिशा में मोड़ दो ,,
---------मुकेश ठन्ना

मैं यशोदा की वो बेटी.........आभा बोधिसत्व

मैं यशोदा की वो बेटी
जिसे ना नन्द बाबा ने बचाया ना वासुदेव ने
दोनों पिता थे और दोनों ने मिलकर मारा मुझे
ये तो अच्छी बात नहीं

सोती रही यशोदा माता
उसे तो यह भी नहीं पता
उसने जना था बेटी या बेटा !

बेटे की रक्षा के लिए मारी गयी बेटी
बेटा जुग जुग जिए
बेटा राज करे
कह -कह कर मारी गयी बेटी

कंस मामा ने तो बाद में मारा
उससे पहले पिता ने कंस मामा के हाथो में सौप कर
कंस मामा ने तो पत्थर पर पटका था केवल !

बेटी हू जानकार
गिर्द्गिदायी माँ देवकी
मरी मैं
बचा तुम्हारा बेटा
मैं मरी और मरती रही तब से अब तक
तब मरी कृष्ण के लिए
अब मरती हू किसी
मोहन,मुन्ना,दीपक के लिए
इन्ही कुल दीपक केलिए
बुझती रही मैं बार बार
ताकि कुल रहे उजियार
जिए जागे गाती रही मैं
तब भी
मरती रही मैं........
क्यूंकि मैं बेटी थी तुम्हारी
मुझे तो मरना ही था
तुम ना मारते पिता तो कोई दुर्योधन मारता मुझे
सभा के बीच साड़ी खीच कर
मुझे तो मरना ही था !!!!!!


प्रस्तुत कर्ताः सिद्धार्थ सिन्हा

मेरी ग़ज़ल यात्रा...........डॉ. वर्षा सिंह


मेरी ग़ज़ल यात्रा...........डॉ. वर्षा सिंह


Tuesday, 22 November 2011

धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा...............मुनव्वर राना

कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

जो भी दौलत थी वह बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

जिस्म पर मेरे बहुत शफ्फाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा

भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर अच्‍छा नहीं लगता

धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है 
---मुनव्वर राणा

Sunday, 20 November 2011

एक फेसबुकिया कविता..................संजीव तिवारी

 कविताएं भी लिखते हो मित्र..
मुझे हौले से उसने पूछा..
कविताएं ही लिखता हूं मित्र..
मैने सहजता से कहा.
भाव प्रवाह को..
गद्य़ की शक्ल में न लिखते हुए..
एक के नीचे एक लिखते हुए..
इतनी लिखी है कि..
दस बीस संग्रह आ जाए.
डाय़री के पन्नों में..
कुढ़ते शब्दों नें..
हजारों बार आतुर होकर..
फड़फड़ाते हुए कहा है..
अब तो पक्के रंगों में..
सतरंगे कलेवर में..
मुझे ले आवो बाहर..
पर मै हूं कि सुनता नही..
शब्दों की
शाय़द इसलिए कि..
बरसों पहले मैंनें..
विनोद कुमार शुक्ल से..
एक अदृश्य़ अनुबंध कर लिय़ा था..
कि आप वही लिखोगा..
जो भाव मेरे मानस में होंगा..
और उससे भी पहले मुक्तिबोध को भी मैंने..
मना लिय़ा था
मेरी कविताओं को कलमबध्द करने.
इन दोनों नें मेरी कविताओं को..
नई उंचाइय़ां दी..
मेरी डाय़री में दफ्न शब्दों को..
उन तक पहुचाय़ा..
जिनके लिय़े वो लिखी गई थी..
उनकी हर कविता मेरी है..
क्य़ा आप भी मानते हैं की
उनकी सारी रचनाएं आपकी है. 
-संजीव तिवारी

आग, कम्बल, छत नहीं, सोये कहाँ ग़रीब..........ललित कुमार

थामोगी या छोड़ोगी मेरा हाथ ज़िन्दगी
कब बीतेगी कहो ये काली रात जिन्दगी

मुझसे वादा किया है तूने वो भूलना नही
जिस बाबत हुई थी तेरी-मेरी बात ज़िन्दगी

जन्मों का है जब साथ तो बेकरारी क्यों
अभी तो बाकी हैं पड़ने फेरे सात ज़िन्दगी

आग, कम्बल, छत नहीं, सोये कहाँ ग़रीब
ठंड में कांप रहा है तन का पात ज़िन्दगी

माना के तूफ़ां तेज़ है पर लड़ने तो दे ज़रा
होगी ग़र तो मानेंगे शह-ओ-मात ज़िन्दगी 
-ललित कुमार (जून 06....2011)

Thursday, 17 November 2011

तेरी महफिल................................आलोक तिवारी

तेरी महफिल में मातम कम न होंगे ।
न होंगे हम क्या तो क्या ये ग़म न होंगे ।।

वो मरक़द तक हमारे क्यूं न आए ।
शिकस्ता पा सही बेदम न होंगे ।।

मेरी बरबादियों पे मेरे अपने ।
बहुत ख़ुश होंगे चश्मे नम न होंगे ।।

न छाऐंगी घटाऐं आसमाँ पर ।
तेरे गेसू अगर बरहम न होंगे ।।

सफर मंज़िल का हो पुरलुत्फ क्यूं कर ।
अगर राहों में पेच-ओ-ख़म न होंगे ।।

उठेंगी उंगलियाँ हक़ गोई पर भी ।
मेरे ऐ “शौक़” चर्चे कम न होंगे 
----आलोक तिवारी

Tuesday, 15 November 2011

दर्द.........................सुमन 'मीत'

... कुछ रोज पहले ही
जिया था मैंने तुझको
अपनी साँसों को कर दिया था
नाम तेरे
मेरा दिल धड़कने लगा था
तेरी ही धड़कनों से
कर ही दिए थे बन्द
सभी दर-ओ-दीवार बेजारी के
बस तेरी ही महक से
कर लिया था सरोबार
वजूद अपना ।

जिस्म से उठती थी
इक खुशबू सौंधी सी
जो करा देती थी
तेरे होने का एहसास
हर बार-हर पल मुझको ।

हुआ यूँ भी
गए रोज ;
तड़पती रही साँसे
तेरी महक के लिए
धड़कनों के लिए
तरसती रहीं धड़कने मेरी
इस बीच
न जाने कब से

आने लगी मौत
दबे पाँव करीब मेरे
बन गए हैं जिस्म पर
कुछ अनचाहे जख्म
रिसने लगी है
कड़वाहट हमारे रिश्ते की
जो कभी घुलती थी
‘सबा’ बन मेरे जिस्म-ओ-जाँ में
अब तो तैरते हैं
आँखों में गम के खारे बादल ।

गम के बादल
घिर-घिर आते हैं
जो बना ही लेते हैं राह
बरसने के लिए
रात की तन्हाई में
और फिर खामोश आँखें
पत्थरा जाती है
झरती हैं रात-रात भर
झरने सरीखी |

सुमन 'मीत'
(आदरणीय ओम पुरोहित कागद जी को समर्पित)

चेतावनी.....................चरऩ लाल

चेतावनी
मैंने अपने बच्चे से कह दिया है
अभी से
थोड़ा थोड़ा विष पीना प्रारंभ कर दे
ताकि
मेरी आँख बंद होने तक
तू इतना जहरीला हो जाए
कि ये दुम हिलाउ कुत्ते
जो पूरे के पूरे जहर में बुझे हुये हैं
जब तुझे काटने को लपके
तो तेरी जहरीली गंध मात्र से
बेहोश होकर छटपटाने लगे
तब मेरी आत्मा कहीं दूर
अथाह प्रसन्नता से नाच उठाएगी
और में समझूंगा जीकर ना सही
किंतु मरकर मैंने कुछ पा लिया है
मेरे बच्चे
ये सांप
नीले -पीले -हरे -लाल -काले -सफेद
सब एक ही हैं धोखा मत खाना
इन सबकी जुबान पर इंसानियत का खून लगा है
तेरा कुनकुना खून चातने के लिए
जब इनकी जीभ लपलपाये
तू दूर मत भागना
अपितु
सीना तानकर सामने खड़े हो जाना
क्यों कि तेरे अन्तर में समाविष्ट विष
इतनी क्षमता रखता है
कि
जो तुमसे टकरायेगा
चूर चूर हो जायेगा .

----"चरण"

Monday, 14 November 2011

अन्तरात्मा............डॉ. दीप्ति गुप्ता

हम सबके अन्दर एक
निश्छल मानुष रहता है,
मन कपटी नहीं होता उसका,
वह उजला ही रहता है,
कितने ही हम पाप करे,
और दूजे पर दोष मढ़े
पर वह स्वच्छ कमल की भाँति
पंक रहित ही रहता है
अन्याय का पक्ष न लेता,
बात न्याय की कहता है
हम उसको परतों में
अगणित दूर दफन कर देते हैं
करते जाते मन की
अपनी अपनी दुनिया जीते हैं
फिर भी उसकी क्षमता इतनी
दमित तनिक न होती है
बुरे कामों की देख श्रृंखला
हमें ताड़ना देता है
राह दिखाता सीधी – सच्ची
खरी बात ही कहता है
पुण्य पुनीत चन्दा प्यारा सा
हर दम दमका करता है
करे विरोध उसका कितना भी
वह अविचल ही रहता है
ठोकर खाकर गिरने पर
वह थाम हमें झट लेता है
फिर भी हम नहीं सुनते एक
मनमानी करते भरपेट
अन्तरतम में ध्यान मगन
हम पे मुस्काया करता है !!
--डॉ. दीप्ति गुप्ता

Saturday, 12 November 2011

सब जानते हैं...............राजीव उपाध्याय

सब जानते हैं,
मैं,
आप,
और सारी दुनिया,
कि विवश है नारी,
परतंत्रता कि बेड़ियों ने जकड़ा है उसे,
काव्य गोष्ठियों में,
विचार मंचो में,
और कला प्रदर्शनियों में वाह-वाही करने वाले,
''''हम'''
क्यूँ भूल जाते हैं,
अपने घर में लौटते ही,
सब कुछ.........
गंभीर प्रश्न.....?
सच ही.......
नारी विवश है हमारे आगे,
और हम विवश हैं अपने स्वभाव के आगे........
--राजीव उपाध्याय

दिन की कथा...............दिनेश जोशी

(एक)
अलभोर में
जो भोर तारा 
अलसाया,
सूरज लाल हुआ
क्षितिज में
कसमसाया...

(दो)
रात झेंपी-झेंपी 
अचिन्ही
फुसफुसाहटों से,
चाँद है कि
जागता
चिन्ही आहटों से...

(तीन)
अहर्निश 
चली आती दुपहरी 
तपती गोद में
सुबह लिए,
चाक ओढ़नी में
शाम किये...
-----.दिनेश जोशी

कितना चाहते है मुझे लोग .....मोहन बंजारा

मैं मोहब्बत गर करता हूँ तुमसे ,
इस बात पर क्यूँ अक्सर जल जाते हैं लोग

कोशिशें लाख करें बच नहीं पाते हैं लोग ,
हुस्न की आग से अक्सर पिघल जाते हैं लोग

 हर कोई चाहता है मोहब्बत में जीना ,
जाने क्यूँ फिर वफ़ा निभाना भूल जाते हैं लोग,

दर्द के लम्हात गर कभी पेश-ए-नज़र होते ज़माने वालों को,
जान जाते ये वो भी कि कैसे टूट कर बिखर जाते हैं लोग

तन्हाइयों में जीना मेरी आदत सी बन गयी है,
क्यूँ तन्हा करके मुझे अब कसमसाते हैं लोग

खुशियाँ जो हमसफ़र थी कभी ,ज़माने को बुरी लगती थी,
ग़म का भी गर सहारा है मुझे तो फिर भी आज तिलमिलाते हैं लोग

जाने क्या समझता है ये ज़माना  इस 'बंजारे ' को
छीन कर खुशियाँ मेरी ,ग़म मेरे नाम कर जाते हैं लोग..... बंजारा

अगर हो सके तो .......................अज्ञात

अज्ञात कवि की इस रचना को मेरी मित्र सोनू अग्रवाल ने फेसबुक में पोस्ट किया.............
अगर हो सके तो ...

मुझे अपनी आँखों मैं रखना ,,,

आँसु बन कर बह जाऊ तो ,

हाथो मैं छुपा लेना..!!

अगर हो सके तो ...

मुझे हवाओ मैं बिखेर देना ,,,

तुम्हे छू कर चला जाऊ तो ,

मुझे महसूस कर लेना..!!

अगर हो सके तो ...

मुझे एक फूल समझ लेना,,,

मुरझा भी जाऊ तो ,

किताबो मैं रख लेना..!!

अगर हो सके तो ...

मुझे अपनी खुवाहिश समझ लेना,,

अगर कभी जो मिल न पाऊ तो ,

मुझे अपनी दुआओ मैं रख लेना... !!!

Thursday, 10 November 2011

आँख उनसे मिली.......................डॉ.(श्रीमती) तारा सिंह

आँख उनसे मिली तो सजल हो गई
प्यार बढ़ने लगा तो ग़ज़ल हो गई

रोज़ कहते हैं आऊँगा आते नहीं
उनके आने की सुनके विकल हो गई

ख़्वाब में वो जब मेरे करीब आ गये
ख़्वाब में छू लिया तो कँवल हो गई

फिर मोहब्बत की तोहमत मुझ पै लगी
मुझको ऐसा लगा बेदख़ल हो गई

वक्त का आईना है लबों के सिफ़र
लब पै मैं आई तो गंगाजल हो गई

'तारा' की शाइरी किसी का दिल हो गई
ख़ुशबुओं से तर हर्फ़ फ़सल हो गई 

---डॉ.(श्रीमती) तारा सिंह

रूहानी आँखे.................~अमि 'अज़ीम '

आप की अपनी कहानी आँखे
है महोब्बत की जुबानी आँखे

इन खिजां राहों पे भी रौशन है
वो जुगनुओ सी रूहानी आँखे

भीगी नजरों में आपका चहरा
इक झलक की है दिवानी आँखे

पलकें बोझिल , ख्वाब काँटों से
है दर्दे-दिल की निशानी आँखे

मत करो प्यार उलझ जाओगे
सच ही कहती है सियानी आँखे
~अमि 'अज़ीम '

Wednesday, 9 November 2011

इंतजार की घड़ी................सी. आर. राजश्री

भुलाये नहीं जाते वो पल,
संग तुम्हारे थे जब हम कल।
प्यार से भरा स्पर्श का वो लम्हा,
सताते है जब रहते है हम तन्हा।

याद तुम आते हो बहुत मुझे
पर कौन अब ये बतायेगा तुझे?
महसूस करती हूँ तुम्हारी कमी,
शायद तुम अब आ जाते कहीं।

संजोयी है मैंने, कुछ हसीन यादें,
खाये थे जब हमने, जीने मरने की वादे।
छेड़ने, रूठने, मनाने का वो सिलसिला,
रूलाती है मुझे, भरती है मन में गिला।

अब और न तड़पाओ, चले आओ,
इन आँखों को न तरसाओ, लौट आओ।
थक गई हूँ, तुम्हारी राह निहारती,
भर लो बाँहो में साजन, मिटा दो इंतजार की घड़ी।
-----सी.आर.राजश्री

Tuesday, 8 November 2011

नजर अपनी अपनी,,,,,,,,,,,,,,,,,,पाराशर गौड़

एक बच्चे की
आँख की रोशनी पल पल जाती रही
कम होती गई
माँ-बाप को हुई चिंता
इसका का क्या होगा ?
गर---इसकी रोशनी चली गई ।
बाप बोला .. .. .. ..
एक काम करें
इसकी आँखों की रोशनी कम होने पहले
क्यों ना, अखबारों में
इशतहार दें ...
"एक बच्चे को आँखें चाहिए
उसे अन्धा होने से बचाएँ ... "
कुछ दिनों के बाद
टेलीफोन खड़के, आवाज आई
मुबारक हो..
आपके बच्चे को आँखें मिल गईं ।
माँ-बाप ने दी दुआ ..
आप्रेशन हुआ
पट्टी खुली, माँ बोली .. ..
"बेटा, कुछ दिखाई दे रहा है
वो, बोला ---- "हाँ"
ये सुनकर सब की बाँछे खिलीं
आवाज आई...
"शुक्र है खुदा का और उसका भी,
जिसकी आँखें इसे मिलीं।"
वो उठा ----,
सब को वहीं छोड़
सामने कुर्सी की ओर दौड़ा
धम्म से जा धस्सा ..
बैठा उसमें होकर चौड़ा
सब एक दूसरे को देखते रहे
इशारों से पूछते रहे ---
ये ऐसा क्यों कर रहा है
ये क्या हो रहा है।
तभी किसने कहा ..,
इसमे इसका कोई दोष नहीं
ये बात, आपकी समझ में नहीं आयेगी
दरसल, इसको जो आँखें मिली हैं, वो
वो, किसी नेता की हैं
वो आप लोगों को थोड़ी देखेंगी
वो -- तो.. .. कुर्सी को देखेंगी।

,,,,,,,,,,,,,पाराशर गौड़

Monday, 7 November 2011

इन्तज़ार रहता है............अशोक वशिष्ट

मुझे मौत का, मौत को मेरा, इन्तज़ार रहता है,
साहब से कब मिलना होगा, इन्तज़ार रहता है?

जीवन भोगा, इस जीवन का, हर सुखदुख भी भोगा,
अब उस दुनियां के सुखदुख का, इन्तज़ार रहता है।

सोचता हूँ कि इकदिन, उस दुनियां का सच जानूँगा,
जाने क्यों उस दिन, उस पल का, इन्तज़ार रहता है?

मानव की किस्मत में जाने, कितना सफ़र लिखा है?
इसको कब जानूँ कब समझूँगा, इन्तज़ार रहता है?

उससे बिछड़के जीना कितना, मुश्किल हो जाता है!
फिर जीना आसां कब होगा , इन्तज़ार रहता है?

लोग न जाने क्यों मरने से, डरते ही रहते हैं?
मरके मंज़िल को पा जाऊँगा, इन्तज़ार रहता है।
--------अशोक वशिष्ट

Tuesday, 18 October 2011

अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में....................राजीव थेपड़ा "भूतनाथ "


कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि

जो धन वो चोरी-छुपे ले जा रहें हैं देश से बाहर 
या फिर अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में

उससे संवर सकती है उनके के हज़ारों भाइयों की ज़िंदगियाँ !
और खुश हो सकते हैं वो पेट भर अन्न या तन पर कपड़े पाकर 

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन के पीछे कर रहें वो इत्ते सारे कुकर्म 
अगर ना करें वो तो बदल सकती है देश की तकदीर !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो सुन्दर व्यवस्था वो अपने लिए चाहते हैं और बना रहे हैं 

उसी के कारण हो रही है उसी व्यवस्था में एक अराजक सडांध ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि

जिस धन को सही तरीके से बाँट देने पर 
बेहतर तरीके से हो सकता है सामाजिक समन्वय !

उसे सिर्फ अपने लिए बचा लेने के कारण ही 
बढ़ रहा है असंतुलन और वर्गों में एक अंतहीन दुश्मनी ! 

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर रिश्तों पर दे दी जाती है धन को ज्यादा तरजीह 

तो बाहरी चकाचौंध तो बेशक आ सकती है जीवन में 
मगर रिश्तों का खोखलापन जीवन को कर देता है उतना ही निरर्थक !

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर धन के पीछे ना भागकर उसे परमार्थ के काम में लगा दो तो 

दुनिया बन सकती है सचमुच अदभुत रूप से संपन्न और सुन्दर !
जिसकी कि कामना करते रहते हैं हम सब हमेशा ही सदा से !

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि अगर सच में 
बेतहाशा धन कमाने वाले अगर अपना आचरण आईने में देख-भर लें 

तो शायद समझ आ जाए उन्हें वह सब कुछ 
जिसे समझने के लिए वो जाते हैं तरह-तरह के साधू-संतों के पास अक्सर ! 

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस व्यवस्था को कमा-खाकर भी वो कोसते हैं उसकी कमियों के लिए 

उस घुन को लगाने वाले सबसे बड़े जिम्मेवार दरअसल वो ही तो हैं !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं 

क्यूंकि ऐसा करने वाले इतने थेथर-अहंकारी-धूर्त और मक्कार बन चुके हैं 
कि स्कूल-कॉलेज में पढ़-कर साधन-संपन्न बनाने के बाद भी 

उन्हें नहीं पता शब्दकोष के भीतर के अच्छे-अच्छे शब्दों का अर्थ 
क्योंकि दरअसल इन शब्दों के अर्थों को भूल-भुला कर ही तो 

वो बने जा रहे हैं इतने ठसकवान और ऐब-पूर्ण 
कि उन्हें अपने कारखानों या अपनी गाडी के नीचे आकर 

मरने वालों का चेहरा तक नहीं दिखाई देता !
और इस तरह जहां हज़ारों लोग भूखे मर जा रहे हैं 

वो खाए जा रहे हैं एक पूरे-का-पूरा देश 
और हज़म कर ली है उन्होंने एक समूची-की-समूची व्यवस्था.....!! 

--------------.राजीव थेपड़ा "भूतनाथ "

Sunday, 16 October 2011

संवेदना जब तक है, कविता मरेगी नहीं............. डॉ. प्रेम दुबे

अंततः यह कि बात चाहे "भौतिक यथार्थवाद" से उठाई जाए या गीता से, सच यह है कि चीजें कभी मरती नहीं,केवल भिन्ना रूपों में संक्रमित और विकसित होती हैं। जब तक मनुष्य है, मानवीय संवेदना है, तब तक कविता मरेगी नहीं। यह बात और है कि विश्वव्यापार और कम्प्यूटरीकरण की टेक्नोलॉजी उसका उपयोग अपने लिए कर रही है। फिर भी याद रखने जैसी बात यह है कि समूची प्रणाली का नियंत्रण जिस दिन सही शक्तियों के हाथ में आएगा, उस दिन मशीन फिर मनुष्य का गुलाम ही बना दी जाएगी। मनुष्यता को उस दिन की प्रतीक्षा है और उसके लिए योजनाबद्ध सोच और संघर्ष की जरूरत है।

समकालिक कविता की बात करते अनेक छवियाँ तैर आती हैं। राजेश जोशी से लेकर लीलाधर जगूड़ी, कुमार विकल, एकांत श्रीवास्तव और कुमार अंबुज तक। समकालिकता की बात करते भी जरा कठिनाई होती है। समकालिक यानी अवधि का कौन पैमाना "समकाल" को मापने का है? फिर समकालिकता किसके संदर्भ में, किसके परिप्रेक्ष्य में और फिर सवाल यह कि समकालिकता का सवाल ही क्यों? क्योंकि, समकालिकता अपने आप में तो कोई मूल्य है नहीं। दो दशकों से अधिक कालावधि को झाँके तो विश्वपटल पर परिवर्तन के तीन दौरों से हम हम गुजरे हैं। एक दौर वह था जब समूची दुनिया में पुरागामी और प्रतिगामी महाशक्तियों की भिड़ंत का घमासान था। चिली ,क्यूबा, वियतनाम, अफगानिस्तान, अफ्रीका, कोरिया और व्यापक तौर पर तीसरी दुनिया के उन सभी देशों में जहाँ मुक्तिदायी जनता संघर्षरत थी। दूसरा दौर वह जब "पेरेस्त्रोइका" और "ग्लासनोस्त" की मुहिम चली और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की व्यवस्थाओं, उनके देश-काल भेदिक प्रयोगों का सिलसिला चला। यह बात भी बड़े महत्व की है कि समकालिकता के बारे में कौन सोच रहा है और किस नजरिए से सोच रहा है? आम जनता जो अशिक्षित और गरीब तबके की है, गड़बड़ तो यह है कि तेजी से बढ़ता मध्यवर्ग (जिसे बुद्धिजीवी तबका समझा जाता है) भी उपभोक्तावाद के शिकंजे में है। इस तरह चिंता और बहस का दायरा अब केवल अत्यंत संवेदनशील चिंतकों के दायरे में सिमट गया है। मेरा ख्याल है कि कविता अब मर रही है या वह चंद बुद्धजीवियों की संगोष्ठी का विषय बनकर रह गई है त जैसी टिप्पणीयों को केवल शब्दों के सहारे ही नहीं, उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अशोक वाजपेयी जब यह बात कह रहे होते हैं तो जाहिर है कि कविता के प्रगतिशील सोच में ढाँचागत होने के खिलाफ वे शिकायत कर रहे होते हैं। यह धारणा बन गई है कि मैं, कविता-विरोधी हूँ। शायद इस तरह के कुछ वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर पेश भी किया गया। मान लीजिए मैं, सड़े खाने को फेंक देने की बात करता हूँ या मनुष्य जीवन के लिए घातक मानता हूँ, तो क्या मुझे "भोजन विरोधी" कहा जाएगा? एड्स और कैंसर रोगों में जर्जर काया से छलनी मरीज को लेकर मृत्यु की आशंका यह उचित दूरी बनाए रखने की डॉक्टरी आग्रह "मानव-विरोधी" होना कैसे है? हिंदी कविता के जिस रहस्य और रहस्यसंप्रदाय को आई.टी.ओ.होते हुए भारत भवन नाम के कब्रिस्तान तक जाना है, उसे देखकर उत्साहित न होना क्या सचमुच"कविता विरोधी" होना कहा जाएगा?

कविता या कविता ही क्यों समूचा साहित्य, समूची कला पूँजीवादी-तंत्र के आरंभ के साथ ही विखंडित होते चले हैं। ग्राम्य-जीवन और श्रव्य परंपरा के जीवित रहते यह सुविधा थी कि एक छोटी सामाजिक इकाई में कोई कुछ रचता है तो ग्राम-गोष्ठी में सहज ही वह सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य हो जाती थी। आपका और हमारा भी यह अनुभव है कि जब शहर का अनियंत्रित विस्तार न था, शहर कस्बाई जीवनशैली जीते थे, तब संप्रेषण और बैठकें अधिक आसान थे। मानव -समाज पर जरूरत से ज्यादा हावी हुई तकनीकी ज्ञान आज शब्द के लिए बल्कि समूची मानवीयकृत सहज रचनात्मकता के लिए संकट पैदा कर रही है।

अंततः यह कि बात चाहे "भौतिक यथार्थवाद" से उठाई जाए या गीता से, सच यह है कि चीजें कभी मरती नहीं,केवल भिन्ना रूपों में संक्रमित और विकसित होती हैं। जब तक मनुष्य है, मानवीय संवेदना है, तब तक कविता मरेगी नहीं। यह बात और है कि विश्वव्यापार और कम्प्यूटरीकरण की टेक्नोलॉजी उसका उपयोग अपने लिए कर रही है। फिर भी याद रखने जैसी बात यह है कि समूची प्रणाली का नियंत्रण जिस दिन सही शक्तियों के हाथ में आएगा, उस दिन मशीन फिर मनुष्य का गुलाम ही बना दी जाएगी। मनुष्यता को उस दिन की प्रतीक्षा है और उसके लिए योजनाबद्ध सोच और संघर्ष की जरूरत है।

------डॉ. प्रेम दुबे
(लेखक सेवानिवृत प्राध्यापक हैं।)

Thursday, 13 October 2011

टूट जाने तलक गिरा मुझको,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,हस्तीमल ’हस्ती’



टूट जाने तलक गिरा मुझको
कैसी मिट्टी का हूँ बता मुझको

मेरी ख़ुशबू भी मर न जाये कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझको

घर मेरे हाथ बाँध देता है
वरना मैदां में देखना मुझको

अक़्ल कोई सज़ा है या इनआम
बारहा सोचना पड़ा मुझको

हुस्न क्या चंद रोज़ साथ रहा
आदतें अपनी दे गया मुझको

देख भगवे लिबास का जादू
सब समझतें हैं पारसा मुझको

कोई मेरा मरज़ तो पहचाने
दर्द क्या और क्या दवा मुझको

मेरी ताकत न जिस जगह पहुँची
उस जगह प्यार ले गया मुझको

ज़िंदगी से नहीं निभा पाया
बस यही एक ग़म रहा मुझको
------हस्तीमल ’हस्ती’

ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला.............देवी नागरानी


ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
जिसकी तलाश थी वो किनारा नहीं मिला
वर्ना उतारते न समंदर में कश्तियाँ
तूफ़ान आए जब भी इशारा नहीं मिला
मेरी लड़खड़हाटों ने संभाला है आज तक
अच्छा हुआ किसीका सहारा नहीं मिला
बदनामियाँ घरों मे दबे पाँव आ गई
शोहरत को घर कभी, हमारा नहीं मिला
ख़ुश्बू, हवा और धूप की परछाइयाँ मिलीं
रौशन करे जाए शाम, सितारा नहीं मिला
ख़ामोशियाँ भी दर्द से देवी है चीखती
हम सा कोई नसीब का मारा नहीं मिला 
------देवी नागरानी

Tuesday, 11 October 2011

ओ बंजारे दिल आओ चलें अब घर अपने................ललित कुमार



ओ बंजारे दिल आओ चलें अब घर अपने
घर से दूरी है लगी दिखाने असर अपने
पीछे पड़ी रह जाएगी वो ख़ाक कहेगी
तय हमनें किस तरह किए सफ़र अपने
रहते ग़र वो साथ तो तारे भी क्या दूर थे
पा ही लेते, हमें पर छोड़ गये थे पर अपने
इश्के-साहिल है उसे मिटना तो ही होगा
उठते ही पल गिन लेती लहर लहर अपने
ये तन्हाई भी क्या-क्या खेल दिखाती है
ज़िन्दगी जा रही पर रुके हुए पहर अपने
याद है हम भी कभी खुशहाल हुआ करते थे
फिर ये कि उसने बुलाया मुझे शहर अपने
पूछा नहीं किसी ने जब था हाले-दिल कहना
अब कोई पूछे तो हिलते नहीं अधर अपने
----ललित कुमार

गल्तियाँ सबक हैं............आशा गोस्वामी

ठोकर लगने के अनज़ाने से डर से
बढ़ते कदम यूं नहीं सहमा करते...

और जो थम जायें राह में कहीं
वो नादां मंजिल नहीं चूमा करते..

ठुकराये गए अहसासों की राह में तो क्या
प्यार भरे दिल नफ़रत नहीं बोया करते..

गल्तियाँ सबक हैं..पत्थर की लकीर के माफ़िक
याद रखने वाले इन्हें दोहराया नहीं करते..

चाँद को बेशक़ नाज़ हो नूर पे अपने
बढ़ते-घटते चाँद सा गुमा ये जुगनू नहीं किया करते..!!

-आशा गोस्वामी

Friday, 7 October 2011

तू हर इक बात पे बरपेगा ...........................राजीव थेपड़ा 'भूतनाथ'

गज़ब.....पता नहीं कहाँ-कहाँ,कब-कब,क्या-क्या कुछ लिखा जा चुका है...कि जिस पर कुछ भी कहना नाकाफी लगता है....उसपर तो कुछ नहीं कह पाउँगा...मगर उससे उत्प्रेरित होकर अभी-अभी जो मैंने गड़ा है....वो आप तक पहुंचा रहा हूँ....
अगर तू हर इक बात पे बरपेगा
तो फिर इक यार को भी तरसेगा !
कई उम्र का प्यासा हूँ मैं यारब
क्या ये अब्र कभी मुझपे बरसेगा !
इतना गुमाँ न कर अपनी ताकत पे
इक दिन तू चार कांधों को तरसेगा !
सबके लिए लड़ना हिम्मत की बात है
उसके लिए वतन का हर आंसू बरसेगा !
ये बता,कब रुखसत होगा तू यहाँ से
और ज्यादा देर की,इज्ज़त को तरसेगा !
वतन से गद्दारी करने वाले ये जान ले
तेरा बच्चा तेरे कर्मों का फल भुगतेगा !
है हिम्मत तो लड़ इस अव्यवस्था से
वरना तेरा खूँ व्यवस्था के लिए तरसेगा !
-----------राजीव थपड़ा 'भूतनाथ'

Wednesday, 5 October 2011

सुकूं बांकपन को तरसेगा...............................??????????

एक निवेदनः
कोई सामान घर में एक कागज में पेक करके लाया गया वह कागज मेरी नजर में आया, 
उसी कागज में ये ग़ज़ल छपी हुई थी, पर श़ाय़र का नाम नहीं था.
आप सभी से ग़ुज़ारिश है यदि किसी को इस ग़ज़ल के श़ाय़र का नाम मालूम हो तो
मुझे बताएं ताकि मैं श़ाय़र का नाम लिख सकूं................शुक्रिया

जबान सुकूं को, सुकूं बांकपन को तरसेगा,
सुकूंकदा मेरी तर्ज़-ऐ-सुकूं को तरसेगा.

नए प्याले सही तेरे दौर में साकी,
ये दौर मेरी शराब-ऐ-कोहन को तरसेगा.

मुझे तो खैर वतन छोड़ के अमन ना मिली
वतन भी मुझ से गरीब-उल-वतन को तरसेगा

उन्ही के दम से फरोज़ां पैं मिलातों के च़राग
ज़माना सोहबत-ए-अरबाव-ए फन को तरसेगा

बदल सको तो बदल दो ये बागबां वरना
ये बाग साया-ए-सर्द-ओ-समन को तरसेगा

हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना एक दिन
ज़मीं पानी को सूरज़ किरण को तरसेगा

Saturday, 1 October 2011

सड़क.........................जे.के.डागर

सब मुझको कहते सड़कें है
ये भी कहते बड़ी कड़क है
पिघल-पिघल कर बनती हूँ।
कड़क तुम्हें ही लगती हूँ।
हृदय मेरा कई बार है पिघला
रख-रख पाँव चोर जब निकला
बारात गुजरती, बाजे बजते
हँसती हूँ मैं देख उन्हें ही संग
मैं भी नाचूँ हिय लिए उमंग
मातृभूमि के दीवाने चलते
कदम बढ़ाते कमर को कसते
खट्टे दाँत करेगें दुश्मन के
यही उद्गार मेरे भी मनके
जयहिंद जयहिंद कहते जाएं
रण क्षेत्र से जीत कर आएं
जब जयचंद चल गोरी से बोला
मै जैसी भी थी खूँ कितना खौला
चाहा उसके कदम बाँध लूँ
उठकर कोई तीर साध लूँ
चाह कर भी कुछ कर न सकी
बेबस शर्म से मर न सकी
पंजाब केसरी ने आवाज उठाई
फिरंगी ने तब लाठी बरसाई
भगत सिंह, चन्द्रा, राजगुरु
जिस दिन फाँसी को हुए शुरू
था रोष बड़ा मैं मिट न सकी
पैरों के तले सिमट न सकी
धरती पर चिपकी धूम रह गई
शहीदों के चरण चूम रह गई
आज भी मोर्चे,रैली आते
तोड़-फोड़ करें जाम लगाते
न देश प्रेम बचा किसी मन में
आसूँ लिए बैठी दामन में
वक्त वह रहा, न ये ही रहेगा
जयहिंद जयहिंद कोई फिर से कहेगा
यही सोच दिल धड़क रहा है,
आस लिए नाम सड़क रहा है।
 
-------जे.के.डागर

संसाधनों का सदुपयोग.............................जे.के.डागर

भूखा है कोई तो प्यासा कोई,
पंखे की हवा बिन रूआंसा कोई।
नंगा है कोई तो अंधेरे में कोई,
तरसता है,होता बसेरे में कोई।
देखो जो होटल या शादी में जाकर,
सड़ाते है खाना कितना गिराकर।
कितने ही भूखों की भूख मिटाता,
गिरा निवाला जो उदर तक जाता।
कितना पानी नलों से बहता है,
कोई पी ले मुझे रो-रो के कहता है।
इन नलों की तकदीर ही ऐसी बताते,
बहते रहना है नालियों की प्यास बुझाते।
कितने ही अकेले में चलते हैं,
इंसा के विरह में घंटों जलते हैं।
जो कोई इन पंखों को बंद कर देता,
बचा के विद्युत से घर भर लेता।
कितने ही मकाँ भी बंद रहते हैं,
गृह-प्रवेश की विरह को सहते हैं।
जो व्यर्थ जाते इन संसाधनों को बचाते,
तो कमी है कमी है, न हम चिल्लाते।
-------जे.के.डागर

तुम कह दो तो...जे.के.डागर

तुम कह दो तो दो दिन को मैं भी जीकर दिखला दूँ
जैसे पी गई मीरा प्याला, मैं भी पीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
कैसे छलनी बना लिया है, पारस जैसा दिल तुमने
बिना सिले जो जख्म रह गए, सारे सीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
वो क्या जिया गम-संकट से जो न दो हाथ हुआ
पंख काट दूँ बदकिस्मत के, अपने में भी कर दिखला दूँ।
सौभाग्य की मिटा लकीरें,कौन मिटा है मिटे हुए पर
नहीं हुआ है अब तक लेकिन, जी करता है कर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
है ट्यूंटि टूट चुकी अश्कों की सैलाब बनी हैं ये आँखें,
डूब जाओ अब इनमें आकर, या मैं पीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
घेर चुका है जाल मौत का, कैसे कोई बचा रहे
तुम चाहो तो मर जाऊँ, या मैं जीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो दिन को मैं भी जीकर दिखला दूँ
जैसे पी गई मीरा प्याला मैं भी पीकर दिखला दूँ।
-------जे.के.डागर

गुच्छा लाल फूलों का........................ललित कुमार

ललित कुमार द्वारा लिखित : 30 सितम्बर 2011
मुझे याद नहीं आता कि पिछली बार मैंने ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) कब लिखने की कोशिश की थी। शायद काफ़ी अर्सा हो गया… ख़ैर आज जो लिखा वो ये है…

 
हाले-शहर होता वही जो होता हाल फूलों का
कभी ग़ौर से देखा करो, है कमाल फूलों का

दोनों रखे हैं सामने ज़रा सोच-समझ के बोल
सुर्ख़ खंजर अच्छा कि गुच्छा लाल फूलों का

बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का

याँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थे
बड़ा बेरंग-सा गुज़रा है अबके साल फूलों का

दो गुल ही काफ़ी थे मगर लालच की हद कहाँ
तोड़ क्यूं उसने लिया मुकम्मल डाल फूलों का

-------ललित कुमार 

Thursday, 29 September 2011

अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है .............सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

हवा जो नर्म है ,साज़िश ये आसमान की है
वो जानता है परिंदे को ज़िद उड़ान की है............

मेरा वजूद ही करता है मुझसे ग़द्दारी
नहीं तो उठने की औकात किस ज़ुबान की है ............

हमारे शहर में अफ़सर नयी जो आई है
सुना है मैंने, वो बेटी किसी किसान की है ..............

अभी भी वक़्त है मिल बैठकर ही सुलझालो
अभी तो बात फ़क़त घर के दरमियान की है ..........................

जवान जिस्म से बोले बुलंदियों के नशे
रहे ख़याल की आगे सड़क ढलान की है ...............

तेरी वफ़ा पे मुझे शक है कब मेरे भाई
मिला है मौके से जो बात उस निशान की है ..........

ये मीठा नर्म सा लहजा ही सिर्फ उसका है
अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है .............


-----सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

दिल के छालों का ज़िक्र आता है................................शरद तैलंग



दिल के छालों का ज़िक्र आता है।
उनकी चालों का ज़िक्र आता है।

प्यार अब बाँटने की चीज़ नहीं,
शूल भालों का ज़िक्र आता है।

सूर मीरा कबीर मिलते नहीं,
बस रिसालों का ज़िक्र आता है।

लोग जब हक़ की बात करते हैं,
बंद तालों का ज़िक्र आता है।

आग जब दिल में उठने लगती है
तब मशालों का ज़िक्र आता है।

जल के मिट तो रहे हैं परवाने,
पर उजालों का ज़िक्र आता है।

देखकर हाल अब ज़माने का,
गुज़रे सालों का ज़िक्र आता है।
......शरद तैलंग 

वाह क्या बात है............महेंद्र प्रताप सिंह

वाह क्या बात है
सरकार बहुत ही स्मार्ट है
समस्याओं से निपटने के
कई तरीके इसके पास हैं
साइन करना सिख लो
निरक्षर से साक्षर आप हैं|

कहते भारत में
70% लोग ग़रीब हैं
तंग आकर सरकार ने
ग़रीबी से लड़ने का
नया फ़ॉर्मूला निकाला
32 रुपये खर्च करने वाले को
अमीरी का दर्जा दिलाया.

लोग भूख-तंग-हाल में
जब करते आत्म हत्या
तो सरकार कहती
कुछ नही ये बस बाबल हैं.

इससे भी लड़ने का
फिर नया फ़ॉर्मूला निकाला
अब खुदकुशी को ही
आसान बना डाला.

आत्महत्या अपराध है
309 धारा ये कहती थी
अगर मरते-मरते बच गये तो
एक साल की सज़ा और जुर्माना भरते थे.
अगले एक साल में
309 धारा ख़त्म हो जाएगी
तब मरने की राह और आसान बन जाएगी.

फिर क्या सरकार हर मोर्चे पर कामयाब हो जाएगी?

..........महेंद्र प्रताप सिंह


Saturday, 24 September 2011

इन उजालों के शहर में.....प्रकाश नारायण



इन उजालों के शहर में
सिर्फ अंधियारा बचा है
आइए कुछ दीप अपनी
आत्मा के हम जलाएं



                                      यूँ यहाँ पर रोशनी
                                      बेजार ही होती रही तो
                                     मुल्क की खातिर बुझे
                                     उन चाँद तारों को जगाए



हर जगह कालिख बनीं
अब प्रेरणाएं वक्त की
है कहां चंदन जिसे हम
भाल पर अपने लगाएं



                                    देश का आदर्श अब तो
                                   भ्रष्ट जीवन-जाल है
                                   रह गई है आज बाकी
                                  महज स्वप्निल वर्जनाएं

छंद हम टाँके कहाँ तक
रोशनी के पक्ष में
कालिमा के पृष्ठ कैसे
आज गोया भूल जाएं



                                   गर चमकना चाहते हो
                                   तो उठा लो फिर मशालें
                                   बुझाती जिनकी रही हैं
                                   स्वार्थ की पछुआ हवाएं


यह जमाना खोट का है
सच कहें तो वोट का है
तंत्र का जादू यहाँ पर
आओ हम तुमको दिखाएं


                                   देखी तो दुनिया निराली हो गई
                                   श्वेत होकर भी ये काली हो गई है
                                   यही इतिहास का क्रम देख लो
                                   जाते-जाते मिट रही उनकी सदाएं

-------प्रकाश नारायण