भाषा में
होता है ज्ञान
और...
अपना ज्ञान भी
होता है भाषा का
छोटे शब्दों में कहिए तो
भाषा यानि
ज्ञान भी
न मौन है
भाषा
और न ही
ज्ञान मौन है
एक पहचान है
भाषा...
जो अपने आप में
पूर्णता तक ..
पहूँचती है
...
पहुँच है तो
एक मार्ग के साथ
और एक ही भाषा
होती ही नही मार्ग की
मौन होते हैं कई
बोलिया भी है कई
और अंततः
यही होता है
ज्ञान...
....
भाषा
सब की होती है
सब की
अपनी भाषा होती है,
सब भाषा में ही होते हैं,
पर........
भाषा के मर्मज्ञ
सभी नहीं होते।
हम सब केवल
एकाध ही भाषा
में होते हैं,
हमारा होना एक
भाषा में होना मात्र है ।
एक भाषा में होना
यानी....
एक सीमा के भीतर
का निवासी होने की ही
बाध्यता है ।
-मन की उपज
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साहित्यकारों, ख़बरदार, 'साहित्य' अलग है, 'भाषा' अलग है ।
अर्थात् उद्भ्रांत जी हिंदी की 100 उल्लेखनीय किताब लिखकर भी अब हिंदी की सेवा नहीं, केवल साहित्य की सेवा कर रहे हैं।