तुम देना साथ मेरा

तुम देना साथ मेरा

Tuesday, 18 October 2011

अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में....................राजीव थेपड़ा "भूतनाथ "


कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि

जो धन वो चोरी-छुपे ले जा रहें हैं देश से बाहर 
या फिर अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में

उससे संवर सकती है उनके के हज़ारों भाइयों की ज़िंदगियाँ !
और खुश हो सकते हैं वो पेट भर अन्न या तन पर कपड़े पाकर 

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन के पीछे कर रहें वो इत्ते सारे कुकर्म 
अगर ना करें वो तो बदल सकती है देश की तकदीर !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो सुन्दर व्यवस्था वो अपने लिए चाहते हैं और बना रहे हैं 

उसी के कारण हो रही है उसी व्यवस्था में एक अराजक सडांध ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि

जिस धन को सही तरीके से बाँट देने पर 
बेहतर तरीके से हो सकता है सामाजिक समन्वय !

उसे सिर्फ अपने लिए बचा लेने के कारण ही 
बढ़ रहा है असंतुलन और वर्गों में एक अंतहीन दुश्मनी ! 

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर रिश्तों पर दे दी जाती है धन को ज्यादा तरजीह 

तो बाहरी चकाचौंध तो बेशक आ सकती है जीवन में 
मगर रिश्तों का खोखलापन जीवन को कर देता है उतना ही निरर्थक !

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर धन के पीछे ना भागकर उसे परमार्थ के काम में लगा दो तो 

दुनिया बन सकती है सचमुच अदभुत रूप से संपन्न और सुन्दर !
जिसकी कि कामना करते रहते हैं हम सब हमेशा ही सदा से !

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि अगर सच में 
बेतहाशा धन कमाने वाले अगर अपना आचरण आईने में देख-भर लें 

तो शायद समझ आ जाए उन्हें वह सब कुछ 
जिसे समझने के लिए वो जाते हैं तरह-तरह के साधू-संतों के पास अक्सर ! 

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस व्यवस्था को कमा-खाकर भी वो कोसते हैं उसकी कमियों के लिए 

उस घुन को लगाने वाले सबसे बड़े जिम्मेवार दरअसल वो ही तो हैं !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं 

क्यूंकि ऐसा करने वाले इतने थेथर-अहंकारी-धूर्त और मक्कार बन चुके हैं 
कि स्कूल-कॉलेज में पढ़-कर साधन-संपन्न बनाने के बाद भी 

उन्हें नहीं पता शब्दकोष के भीतर के अच्छे-अच्छे शब्दों का अर्थ 
क्योंकि दरअसल इन शब्दों के अर्थों को भूल-भुला कर ही तो 

वो बने जा रहे हैं इतने ठसकवान और ऐब-पूर्ण 
कि उन्हें अपने कारखानों या अपनी गाडी के नीचे आकर 

मरने वालों का चेहरा तक नहीं दिखाई देता !
और इस तरह जहां हज़ारों लोग भूखे मर जा रहे हैं 

वो खाए जा रहे हैं एक पूरे-का-पूरा देश 
और हज़म कर ली है उन्होंने एक समूची-की-समूची व्यवस्था.....!! 

--------------.राजीव थेपड़ा "भूतनाथ "

Sunday, 16 October 2011

संवेदना जब तक है, कविता मरेगी नहीं............. डॉ. प्रेम दुबे

अंततः यह कि बात चाहे "भौतिक यथार्थवाद" से उठाई जाए या गीता से, सच यह है कि चीजें कभी मरती नहीं,केवल भिन्ना रूपों में संक्रमित और विकसित होती हैं। जब तक मनुष्य है, मानवीय संवेदना है, तब तक कविता मरेगी नहीं। यह बात और है कि विश्वव्यापार और कम्प्यूटरीकरण की टेक्नोलॉजी उसका उपयोग अपने लिए कर रही है। फिर भी याद रखने जैसी बात यह है कि समूची प्रणाली का नियंत्रण जिस दिन सही शक्तियों के हाथ में आएगा, उस दिन मशीन फिर मनुष्य का गुलाम ही बना दी जाएगी। मनुष्यता को उस दिन की प्रतीक्षा है और उसके लिए योजनाबद्ध सोच और संघर्ष की जरूरत है।

समकालिक कविता की बात करते अनेक छवियाँ तैर आती हैं। राजेश जोशी से लेकर लीलाधर जगूड़ी, कुमार विकल, एकांत श्रीवास्तव और कुमार अंबुज तक। समकालिकता की बात करते भी जरा कठिनाई होती है। समकालिक यानी अवधि का कौन पैमाना "समकाल" को मापने का है? फिर समकालिकता किसके संदर्भ में, किसके परिप्रेक्ष्य में और फिर सवाल यह कि समकालिकता का सवाल ही क्यों? क्योंकि, समकालिकता अपने आप में तो कोई मूल्य है नहीं। दो दशकों से अधिक कालावधि को झाँके तो विश्वपटल पर परिवर्तन के तीन दौरों से हम हम गुजरे हैं। एक दौर वह था जब समूची दुनिया में पुरागामी और प्रतिगामी महाशक्तियों की भिड़ंत का घमासान था। चिली ,क्यूबा, वियतनाम, अफगानिस्तान, अफ्रीका, कोरिया और व्यापक तौर पर तीसरी दुनिया के उन सभी देशों में जहाँ मुक्तिदायी जनता संघर्षरत थी। दूसरा दौर वह जब "पेरेस्त्रोइका" और "ग्लासनोस्त" की मुहिम चली और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की व्यवस्थाओं, उनके देश-काल भेदिक प्रयोगों का सिलसिला चला। यह बात भी बड़े महत्व की है कि समकालिकता के बारे में कौन सोच रहा है और किस नजरिए से सोच रहा है? आम जनता जो अशिक्षित और गरीब तबके की है, गड़बड़ तो यह है कि तेजी से बढ़ता मध्यवर्ग (जिसे बुद्धिजीवी तबका समझा जाता है) भी उपभोक्तावाद के शिकंजे में है। इस तरह चिंता और बहस का दायरा अब केवल अत्यंत संवेदनशील चिंतकों के दायरे में सिमट गया है। मेरा ख्याल है कि कविता अब मर रही है या वह चंद बुद्धजीवियों की संगोष्ठी का विषय बनकर रह गई है त जैसी टिप्पणीयों को केवल शब्दों के सहारे ही नहीं, उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अशोक वाजपेयी जब यह बात कह रहे होते हैं तो जाहिर है कि कविता के प्रगतिशील सोच में ढाँचागत होने के खिलाफ वे शिकायत कर रहे होते हैं। यह धारणा बन गई है कि मैं, कविता-विरोधी हूँ। शायद इस तरह के कुछ वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर पेश भी किया गया। मान लीजिए मैं, सड़े खाने को फेंक देने की बात करता हूँ या मनुष्य जीवन के लिए घातक मानता हूँ, तो क्या मुझे "भोजन विरोधी" कहा जाएगा? एड्स और कैंसर रोगों में जर्जर काया से छलनी मरीज को लेकर मृत्यु की आशंका यह उचित दूरी बनाए रखने की डॉक्टरी आग्रह "मानव-विरोधी" होना कैसे है? हिंदी कविता के जिस रहस्य और रहस्यसंप्रदाय को आई.टी.ओ.होते हुए भारत भवन नाम के कब्रिस्तान तक जाना है, उसे देखकर उत्साहित न होना क्या सचमुच"कविता विरोधी" होना कहा जाएगा?

कविता या कविता ही क्यों समूचा साहित्य, समूची कला पूँजीवादी-तंत्र के आरंभ के साथ ही विखंडित होते चले हैं। ग्राम्य-जीवन और श्रव्य परंपरा के जीवित रहते यह सुविधा थी कि एक छोटी सामाजिक इकाई में कोई कुछ रचता है तो ग्राम-गोष्ठी में सहज ही वह सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य हो जाती थी। आपका और हमारा भी यह अनुभव है कि जब शहर का अनियंत्रित विस्तार न था, शहर कस्बाई जीवनशैली जीते थे, तब संप्रेषण और बैठकें अधिक आसान थे। मानव -समाज पर जरूरत से ज्यादा हावी हुई तकनीकी ज्ञान आज शब्द के लिए बल्कि समूची मानवीयकृत सहज रचनात्मकता के लिए संकट पैदा कर रही है।

अंततः यह कि बात चाहे "भौतिक यथार्थवाद" से उठाई जाए या गीता से, सच यह है कि चीजें कभी मरती नहीं,केवल भिन्ना रूपों में संक्रमित और विकसित होती हैं। जब तक मनुष्य है, मानवीय संवेदना है, तब तक कविता मरेगी नहीं। यह बात और है कि विश्वव्यापार और कम्प्यूटरीकरण की टेक्नोलॉजी उसका उपयोग अपने लिए कर रही है। फिर भी याद रखने जैसी बात यह है कि समूची प्रणाली का नियंत्रण जिस दिन सही शक्तियों के हाथ में आएगा, उस दिन मशीन फिर मनुष्य का गुलाम ही बना दी जाएगी। मनुष्यता को उस दिन की प्रतीक्षा है और उसके लिए योजनाबद्ध सोच और संघर्ष की जरूरत है।

------डॉ. प्रेम दुबे
(लेखक सेवानिवृत प्राध्यापक हैं।)

Thursday, 13 October 2011

टूट जाने तलक गिरा मुझको,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,हस्तीमल ’हस्ती’



टूट जाने तलक गिरा मुझको
कैसी मिट्टी का हूँ बता मुझको

मेरी ख़ुशबू भी मर न जाये कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझको

घर मेरे हाथ बाँध देता है
वरना मैदां में देखना मुझको

अक़्ल कोई सज़ा है या इनआम
बारहा सोचना पड़ा मुझको

हुस्न क्या चंद रोज़ साथ रहा
आदतें अपनी दे गया मुझको

देख भगवे लिबास का जादू
सब समझतें हैं पारसा मुझको

कोई मेरा मरज़ तो पहचाने
दर्द क्या और क्या दवा मुझको

मेरी ताकत न जिस जगह पहुँची
उस जगह प्यार ले गया मुझको

ज़िंदगी से नहीं निभा पाया
बस यही एक ग़म रहा मुझको
------हस्तीमल ’हस्ती’

ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला.............देवी नागरानी


ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
जिसकी तलाश थी वो किनारा नहीं मिला
वर्ना उतारते न समंदर में कश्तियाँ
तूफ़ान आए जब भी इशारा नहीं मिला
मेरी लड़खड़हाटों ने संभाला है आज तक
अच्छा हुआ किसीका सहारा नहीं मिला
बदनामियाँ घरों मे दबे पाँव आ गई
शोहरत को घर कभी, हमारा नहीं मिला
ख़ुश्बू, हवा और धूप की परछाइयाँ मिलीं
रौशन करे जाए शाम, सितारा नहीं मिला
ख़ामोशियाँ भी दर्द से देवी है चीखती
हम सा कोई नसीब का मारा नहीं मिला 
------देवी नागरानी

Tuesday, 11 October 2011

ओ बंजारे दिल आओ चलें अब घर अपने................ललित कुमार



ओ बंजारे दिल आओ चलें अब घर अपने
घर से दूरी है लगी दिखाने असर अपने
पीछे पड़ी रह जाएगी वो ख़ाक कहेगी
तय हमनें किस तरह किए सफ़र अपने
रहते ग़र वो साथ तो तारे भी क्या दूर थे
पा ही लेते, हमें पर छोड़ गये थे पर अपने
इश्के-साहिल है उसे मिटना तो ही होगा
उठते ही पल गिन लेती लहर लहर अपने
ये तन्हाई भी क्या-क्या खेल दिखाती है
ज़िन्दगी जा रही पर रुके हुए पहर अपने
याद है हम भी कभी खुशहाल हुआ करते थे
फिर ये कि उसने बुलाया मुझे शहर अपने
पूछा नहीं किसी ने जब था हाले-दिल कहना
अब कोई पूछे तो हिलते नहीं अधर अपने
----ललित कुमार

गल्तियाँ सबक हैं............आशा गोस्वामी

ठोकर लगने के अनज़ाने से डर से
बढ़ते कदम यूं नहीं सहमा करते...

और जो थम जायें राह में कहीं
वो नादां मंजिल नहीं चूमा करते..

ठुकराये गए अहसासों की राह में तो क्या
प्यार भरे दिल नफ़रत नहीं बोया करते..

गल्तियाँ सबक हैं..पत्थर की लकीर के माफ़िक
याद रखने वाले इन्हें दोहराया नहीं करते..

चाँद को बेशक़ नाज़ हो नूर पे अपने
बढ़ते-घटते चाँद सा गुमा ये जुगनू नहीं किया करते..!!

-आशा गोस्वामी

Friday, 7 October 2011

तू हर इक बात पे बरपेगा ...........................राजीव थेपड़ा 'भूतनाथ'

गज़ब.....पता नहीं कहाँ-कहाँ,कब-कब,क्या-क्या कुछ लिखा जा चुका है...कि जिस पर कुछ भी कहना नाकाफी लगता है....उसपर तो कुछ नहीं कह पाउँगा...मगर उससे उत्प्रेरित होकर अभी-अभी जो मैंने गड़ा है....वो आप तक पहुंचा रहा हूँ....
अगर तू हर इक बात पे बरपेगा
तो फिर इक यार को भी तरसेगा !
कई उम्र का प्यासा हूँ मैं यारब
क्या ये अब्र कभी मुझपे बरसेगा !
इतना गुमाँ न कर अपनी ताकत पे
इक दिन तू चार कांधों को तरसेगा !
सबके लिए लड़ना हिम्मत की बात है
उसके लिए वतन का हर आंसू बरसेगा !
ये बता,कब रुखसत होगा तू यहाँ से
और ज्यादा देर की,इज्ज़त को तरसेगा !
वतन से गद्दारी करने वाले ये जान ले
तेरा बच्चा तेरे कर्मों का फल भुगतेगा !
है हिम्मत तो लड़ इस अव्यवस्था से
वरना तेरा खूँ व्यवस्था के लिए तरसेगा !
-----------राजीव थपड़ा 'भूतनाथ'

Wednesday, 5 October 2011

सुकूं बांकपन को तरसेगा...............................??????????

एक निवेदनः
कोई सामान घर में एक कागज में पेक करके लाया गया वह कागज मेरी नजर में आया, 
उसी कागज में ये ग़ज़ल छपी हुई थी, पर श़ाय़र का नाम नहीं था.
आप सभी से ग़ुज़ारिश है यदि किसी को इस ग़ज़ल के श़ाय़र का नाम मालूम हो तो
मुझे बताएं ताकि मैं श़ाय़र का नाम लिख सकूं................शुक्रिया

जबान सुकूं को, सुकूं बांकपन को तरसेगा,
सुकूंकदा मेरी तर्ज़-ऐ-सुकूं को तरसेगा.

नए प्याले सही तेरे दौर में साकी,
ये दौर मेरी शराब-ऐ-कोहन को तरसेगा.

मुझे तो खैर वतन छोड़ के अमन ना मिली
वतन भी मुझ से गरीब-उल-वतन को तरसेगा

उन्ही के दम से फरोज़ां पैं मिलातों के च़राग
ज़माना सोहबत-ए-अरबाव-ए फन को तरसेगा

बदल सको तो बदल दो ये बागबां वरना
ये बाग साया-ए-सर्द-ओ-समन को तरसेगा

हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना एक दिन
ज़मीं पानी को सूरज़ किरण को तरसेगा

Saturday, 1 October 2011

सड़क.........................जे.के.डागर

सब मुझको कहते सड़कें है
ये भी कहते बड़ी कड़क है
पिघल-पिघल कर बनती हूँ।
कड़क तुम्हें ही लगती हूँ।
हृदय मेरा कई बार है पिघला
रख-रख पाँव चोर जब निकला
बारात गुजरती, बाजे बजते
हँसती हूँ मैं देख उन्हें ही संग
मैं भी नाचूँ हिय लिए उमंग
मातृभूमि के दीवाने चलते
कदम बढ़ाते कमर को कसते
खट्टे दाँत करेगें दुश्मन के
यही उद्गार मेरे भी मनके
जयहिंद जयहिंद कहते जाएं
रण क्षेत्र से जीत कर आएं
जब जयचंद चल गोरी से बोला
मै जैसी भी थी खूँ कितना खौला
चाहा उसके कदम बाँध लूँ
उठकर कोई तीर साध लूँ
चाह कर भी कुछ कर न सकी
बेबस शर्म से मर न सकी
पंजाब केसरी ने आवाज उठाई
फिरंगी ने तब लाठी बरसाई
भगत सिंह, चन्द्रा, राजगुरु
जिस दिन फाँसी को हुए शुरू
था रोष बड़ा मैं मिट न सकी
पैरों के तले सिमट न सकी
धरती पर चिपकी धूम रह गई
शहीदों के चरण चूम रह गई
आज भी मोर्चे,रैली आते
तोड़-फोड़ करें जाम लगाते
न देश प्रेम बचा किसी मन में
आसूँ लिए बैठी दामन में
वक्त वह रहा, न ये ही रहेगा
जयहिंद जयहिंद कोई फिर से कहेगा
यही सोच दिल धड़क रहा है,
आस लिए नाम सड़क रहा है।
 
-------जे.के.डागर

संसाधनों का सदुपयोग.............................जे.के.डागर

भूखा है कोई तो प्यासा कोई,
पंखे की हवा बिन रूआंसा कोई।
नंगा है कोई तो अंधेरे में कोई,
तरसता है,होता बसेरे में कोई।
देखो जो होटल या शादी में जाकर,
सड़ाते है खाना कितना गिराकर।
कितने ही भूखों की भूख मिटाता,
गिरा निवाला जो उदर तक जाता।
कितना पानी नलों से बहता है,
कोई पी ले मुझे रो-रो के कहता है।
इन नलों की तकदीर ही ऐसी बताते,
बहते रहना है नालियों की प्यास बुझाते।
कितने ही अकेले में चलते हैं,
इंसा के विरह में घंटों जलते हैं।
जो कोई इन पंखों को बंद कर देता,
बचा के विद्युत से घर भर लेता।
कितने ही मकाँ भी बंद रहते हैं,
गृह-प्रवेश की विरह को सहते हैं।
जो व्यर्थ जाते इन संसाधनों को बचाते,
तो कमी है कमी है, न हम चिल्लाते।
-------जे.के.डागर

तुम कह दो तो...जे.के.डागर

तुम कह दो तो दो दिन को मैं भी जीकर दिखला दूँ
जैसे पी गई मीरा प्याला, मैं भी पीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
कैसे छलनी बना लिया है, पारस जैसा दिल तुमने
बिना सिले जो जख्म रह गए, सारे सीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
वो क्या जिया गम-संकट से जो न दो हाथ हुआ
पंख काट दूँ बदकिस्मत के, अपने में भी कर दिखला दूँ।
सौभाग्य की मिटा लकीरें,कौन मिटा है मिटे हुए पर
नहीं हुआ है अब तक लेकिन, जी करता है कर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
है ट्यूंटि टूट चुकी अश्कों की सैलाब बनी हैं ये आँखें,
डूब जाओ अब इनमें आकर, या मैं पीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो-
घेर चुका है जाल मौत का, कैसे कोई बचा रहे
तुम चाहो तो मर जाऊँ, या मैं जीकर दिखला दूँ।
तुम कह दो तो दिन को मैं भी जीकर दिखला दूँ
जैसे पी गई मीरा प्याला मैं भी पीकर दिखला दूँ।
-------जे.के.डागर

गुच्छा लाल फूलों का........................ललित कुमार

ललित कुमार द्वारा लिखित : 30 सितम्बर 2011
मुझे याद नहीं आता कि पिछली बार मैंने ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) कब लिखने की कोशिश की थी। शायद काफ़ी अर्सा हो गया… ख़ैर आज जो लिखा वो ये है…

 
हाले-शहर होता वही जो होता हाल फूलों का
कभी ग़ौर से देखा करो, है कमाल फूलों का

दोनों रखे हैं सामने ज़रा सोच-समझ के बोल
सुर्ख़ खंजर अच्छा कि गुच्छा लाल फूलों का

बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का

याँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थे
बड़ा बेरंग-सा गुज़रा है अबके साल फूलों का

दो गुल ही काफ़ी थे मगर लालच की हद कहाँ
तोड़ क्यूं उसने लिया मुकम्मल डाल फूलों का

-------ललित कुमार