तुम देना साथ मेरा

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Sunday, 16 October 2011

संवेदना जब तक है, कविता मरेगी नहीं............. डॉ. प्रेम दुबे

अंततः यह कि बात चाहे "भौतिक यथार्थवाद" से उठाई जाए या गीता से, सच यह है कि चीजें कभी मरती नहीं,केवल भिन्ना रूपों में संक्रमित और विकसित होती हैं। जब तक मनुष्य है, मानवीय संवेदना है, तब तक कविता मरेगी नहीं। यह बात और है कि विश्वव्यापार और कम्प्यूटरीकरण की टेक्नोलॉजी उसका उपयोग अपने लिए कर रही है। फिर भी याद रखने जैसी बात यह है कि समूची प्रणाली का नियंत्रण जिस दिन सही शक्तियों के हाथ में आएगा, उस दिन मशीन फिर मनुष्य का गुलाम ही बना दी जाएगी। मनुष्यता को उस दिन की प्रतीक्षा है और उसके लिए योजनाबद्ध सोच और संघर्ष की जरूरत है।

समकालिक कविता की बात करते अनेक छवियाँ तैर आती हैं। राजेश जोशी से लेकर लीलाधर जगूड़ी, कुमार विकल, एकांत श्रीवास्तव और कुमार अंबुज तक। समकालिकता की बात करते भी जरा कठिनाई होती है। समकालिक यानी अवधि का कौन पैमाना "समकाल" को मापने का है? फिर समकालिकता किसके संदर्भ में, किसके परिप्रेक्ष्य में और फिर सवाल यह कि समकालिकता का सवाल ही क्यों? क्योंकि, समकालिकता अपने आप में तो कोई मूल्य है नहीं। दो दशकों से अधिक कालावधि को झाँके तो विश्वपटल पर परिवर्तन के तीन दौरों से हम हम गुजरे हैं। एक दौर वह था जब समूची दुनिया में पुरागामी और प्रतिगामी महाशक्तियों की भिड़ंत का घमासान था। चिली ,क्यूबा, वियतनाम, अफगानिस्तान, अफ्रीका, कोरिया और व्यापक तौर पर तीसरी दुनिया के उन सभी देशों में जहाँ मुक्तिदायी जनता संघर्षरत थी। दूसरा दौर वह जब "पेरेस्त्रोइका" और "ग्लासनोस्त" की मुहिम चली और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की व्यवस्थाओं, उनके देश-काल भेदिक प्रयोगों का सिलसिला चला। यह बात भी बड़े महत्व की है कि समकालिकता के बारे में कौन सोच रहा है और किस नजरिए से सोच रहा है? आम जनता जो अशिक्षित और गरीब तबके की है, गड़बड़ तो यह है कि तेजी से बढ़ता मध्यवर्ग (जिसे बुद्धिजीवी तबका समझा जाता है) भी उपभोक्तावाद के शिकंजे में है। इस तरह चिंता और बहस का दायरा अब केवल अत्यंत संवेदनशील चिंतकों के दायरे में सिमट गया है। मेरा ख्याल है कि कविता अब मर रही है या वह चंद बुद्धजीवियों की संगोष्ठी का विषय बनकर रह गई है त जैसी टिप्पणीयों को केवल शब्दों के सहारे ही नहीं, उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अशोक वाजपेयी जब यह बात कह रहे होते हैं तो जाहिर है कि कविता के प्रगतिशील सोच में ढाँचागत होने के खिलाफ वे शिकायत कर रहे होते हैं। यह धारणा बन गई है कि मैं, कविता-विरोधी हूँ। शायद इस तरह के कुछ वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर पेश भी किया गया। मान लीजिए मैं, सड़े खाने को फेंक देने की बात करता हूँ या मनुष्य जीवन के लिए घातक मानता हूँ, तो क्या मुझे "भोजन विरोधी" कहा जाएगा? एड्स और कैंसर रोगों में जर्जर काया से छलनी मरीज को लेकर मृत्यु की आशंका यह उचित दूरी बनाए रखने की डॉक्टरी आग्रह "मानव-विरोधी" होना कैसे है? हिंदी कविता के जिस रहस्य और रहस्यसंप्रदाय को आई.टी.ओ.होते हुए भारत भवन नाम के कब्रिस्तान तक जाना है, उसे देखकर उत्साहित न होना क्या सचमुच"कविता विरोधी" होना कहा जाएगा?

कविता या कविता ही क्यों समूचा साहित्य, समूची कला पूँजीवादी-तंत्र के आरंभ के साथ ही विखंडित होते चले हैं। ग्राम्य-जीवन और श्रव्य परंपरा के जीवित रहते यह सुविधा थी कि एक छोटी सामाजिक इकाई में कोई कुछ रचता है तो ग्राम-गोष्ठी में सहज ही वह सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य हो जाती थी। आपका और हमारा भी यह अनुभव है कि जब शहर का अनियंत्रित विस्तार न था, शहर कस्बाई जीवनशैली जीते थे, तब संप्रेषण और बैठकें अधिक आसान थे। मानव -समाज पर जरूरत से ज्यादा हावी हुई तकनीकी ज्ञान आज शब्द के लिए बल्कि समूची मानवीयकृत सहज रचनात्मकता के लिए संकट पैदा कर रही है।

अंततः यह कि बात चाहे "भौतिक यथार्थवाद" से उठाई जाए या गीता से, सच यह है कि चीजें कभी मरती नहीं,केवल भिन्ना रूपों में संक्रमित और विकसित होती हैं। जब तक मनुष्य है, मानवीय संवेदना है, तब तक कविता मरेगी नहीं। यह बात और है कि विश्वव्यापार और कम्प्यूटरीकरण की टेक्नोलॉजी उसका उपयोग अपने लिए कर रही है। फिर भी याद रखने जैसी बात यह है कि समूची प्रणाली का नियंत्रण जिस दिन सही शक्तियों के हाथ में आएगा, उस दिन मशीन फिर मनुष्य का गुलाम ही बना दी जाएगी। मनुष्यता को उस दिन की प्रतीक्षा है और उसके लिए योजनाबद्ध सोच और संघर्ष की जरूरत है।

------डॉ. प्रेम दुबे
(लेखक सेवानिवृत प्राध्यापक हैं।)

1 comment:

  1. कल 18/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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