यहॉ कब कौन किसका हुआ है ,
इंसान जरुरत से बंधा हुआ है ।
मेरे ख्वाबो मे ही आते है बस वो,
पाना उसको सपना बना हुआ है।
सुनो,पत्थर दिलो की बस्ती है ये,
तु क्यो मोम सा बना हुआ है ।
खुदगर्ज है लोग इस दुनिया मे,
कौन किसका सहारा हुआ है ।
कहने को तो बस अपना ही है वो,
दिलासा शब्दो का बना हुआ है ।
लोहा होता तो पिघलता शायद,
इंसान पत्थर का बना हुआ है।
जीत ने का ख्वाब देखा नही कभी,
हारने का बहाना एक बना हुआ है ।
नही होता अब यकीन किसी पर भी,
इंसान तो जैसे हवा बना हुआ है।
लगाके गले वो परायो को शायद,
अंजान अपनो से ही बना हुआ है।
छोड़ो मेरे दर्दे-ए-दिल की फिक्र तुम,
ठोकर खाकर "अधीर" संभला हुआ है ।
-अधीर
प्रस्तुतिकरणः सुरेश पसारी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-11-2017) को
ReplyDelete"दर्दे-ए-दिल की फिक्र" (चर्चा अंक 2778)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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कार्तिक पूर्णिमा (गुरू नानक जयन्ती) की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'