दायरे से वो निकलता क्यों नहीं
ज़िंदगी के साथ चलता क्यों नहीं
बोझ सी लगने लगी है ज़िंदगी
ख़्वाब एक आँखों में पलता क्यों नहीं
कब तलक भागा फिरेगा ख़ुद से वो
साथ आख़िर अपने मिलता क्यों नहीं
गर बने रहना है सत्ता में अभी
गिरगिटों सा रंग बदलता क्यों नहीं
बातें ही करता मिसालों की बहुत
उन मिसालों में वो ढलता क्यों नहीं
ऐ ख़ुदा दुख हो गये जैसे पहाड़
तेरा दिल अब भी पिघलता क्यों नहीं
ओढ़ कर बैठा है क्यूँ खामोशियाँ
बन के लौ फिर से वो जलता क्यों नहीं
क्या हुई है कोई अनहोनी कहीं
दीप मेरे घर का जलता क्यों नहीं......
ज़िंदगी के साथ चलता क्यों नहीं
बोझ सी लगने लगी है ज़िंदगी
ख़्वाब एक आँखों में पलता क्यों नहीं
कब तलक भागा फिरेगा ख़ुद से वो
साथ आख़िर अपने मिलता क्यों नहीं
गर बने रहना है सत्ता में अभी
गिरगिटों सा रंग बदलता क्यों नहीं
बातें ही करता मिसालों की बहुत
उन मिसालों में वो ढलता क्यों नहीं
ऐ ख़ुदा दुख हो गये जैसे पहाड़
तेरा दिल अब भी पिघलता क्यों नहीं
ओढ़ कर बैठा है क्यूँ खामोशियाँ
बन के लौ फिर से वो जलता क्यों नहीं
क्या हुई है कोई अनहोनी कहीं
दीप मेरे घर का जलता क्यों नहीं......
-----ममता किरण
सुन्दर
ReplyDeleteबोझ सी लगने लगी है ज़िंदगी
ReplyDeleteख़्वाब एक आँखों में पलता क्यों नहीं
ओढ़ कर बैठा है क्यूँ खामोशियाँ
बन के लौ फिर से वो जलता क्यों नहीं
इन सवालों का जबाब मिलता क्यों नहीं .... !!
बेहतरीन
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया भाई
Deleteखूबसूरत गज़ल
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल
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